भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री विष्णु-तत्त्व
अविद्याएँ रज आदि के अनूवेध-वैचित्र्य से अनन्त हैं, उनमें प्रतिबिम्बित चैतन्यरूप जीव भी अनन्त है। जो लोग अविद्या को भी एक ही मानते हैं, उनके मत से जीव भी एक ही होता है। विशुद्धसत्त्वप्रधानाविद्या में भी अंशतः सत्त्व, रज, तम होते हैं, उसी सत्त्वप्रधाना शक्तिस्वरूपा विद्या के सात्त्विक अंश से विष्णु, राजस अंश से ब्रह्मा और उसी विद्या के तामस अंश से रुद्र का आविर्भाव होता है। अवान्तरशक्ति के ही विभाग के समान ही महाशक्ति के भी विभाग समझने चाहिये। महाशक्ति के तमःप्रधान अंश से जड़वर्ग का, अशुद्ध सत्त्वप्रधान शक्ति से मोक्षवर्ग का और विशुद्ध सत्त्व प्रधानशक्ति से महेश्वर का आविर्भाव होता है। महाशिक्तिविशिष्ट ब्रह्म एक ही है, अतः एक ब्रह्म का ही भोग्य, भोक्ता तथा महेश्वर के रूप में आविर्भाव समझा जाता है। भोग्यवर्ग एवं भोक्तृवण की एकता-अनेकता का प्रश्न उठ सकता है, परन्तु महेश्वर की अनेकता का प्रश्न ही नहीं उठ सकता। उत्पत्ति-स्थिति-लयकारण एक ही है, तथापि उत्पत्तिकारणत्वादि की पृथक-पृथक विवक्षा से ब्रह्मा, विष्णु रुद्र, आदि कहा जाता है। अनन्तब्रह्माण्ड-नायक भगवान ही ‘विष्णु’ ‘पद्म’ आदि पुराणों में विष्णु, ‘रामायण’, ‘भारत’ आदि में राम, कृष्ण आदि रूप में गाया गया है। ‘शिव’, ‘स्कन्दादि’ पुराणों में वही शिव, रुद्र आदि नामों से कहा जाता है। शिवपरक पुराणों में कार्य विष्णु अर्थात एक-एक ब्रह्माण्ड के विष्णु का वर्णन है, इसीलिये उसका कुछ अपकर्ष भी भासित होता है। विष्णुपरक पुराणों में शिव भी कार्यन्तःपाती ही है। अनन्तब्रह्माण्डनायक की प्राप्ति में अपकर्ष की कल्पना भी संगत ही है। फलतः अनन्तब्रह्माण्डनायक परब्रह्म परमात्मा ही वेद, रामायाण, भारत, पुराण, आदि में अनेक रूपों एवं नामों से गाया गया है। वही भगवान ‘विष्णु’ शब्द से प्रसिद्ध हैं। |
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