भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री विष्णु-तत्त्व
जगत के पालन में सर्वातिशायी ऐश्वर्य की अपेक्षा होती है, अतः विष्णु भगवान में परमेश्वर्य का अस्तित्व है। समग्र ऐश्वर्य, समग्र धर्म, समग्र यश, समग्र श्री, समग्र ज्ञान, समग्र वैराग्य जिसमें हों वही भगवान है, अथवा प्राणियों, की उत्पत्ति, प्रलय, गति, आगति, विद्या अविद्या को खूब जानने वाला ही भगवान है। विश्व-मात्र को फलित-प्रफुल्लित करना, अनेक ऐश्वर्य से पूर्ण करना पालक का काम है। इसीलिये विष्णु भगवान में पराकाष्ठा का ऐश्वर्य पाया जाता है। यद्यपि परमविष्णु साक्षात चैतन्यघन ही हैं, तथापि उपासना में उनकी पदादि अंग-उपांग गरुड़ादि आयुध सुदर्शनादि, आकल्प कौस्तुभादि की कल्पना की जाती है। माया, सूत्रात्मा, महान, अंहकार, पंचतन्मात्रा, ग्यारह इन्द्रियाँ पंचमहाभूत इन षोडश विकारों के साथ महाविराट भगवान का स्थूल रूप है। भगवान के उसी सात्त्विक रूप में तीनों भुवन प्रतिभासित होते हैं। यही पैरुष का रूप है। भूलोक ही इस पुरुष का पाद है, द्यौलोक ही शिर है, अन्तरिक्ष लोक ही नाभि है, सूर्य, नेत्र, वायु नासिका, दिशाएँ, कान, प्रजापति प्रजनेन्द्रिय, मृत्यु पायु (गुदा), लोकपाल बाहु, चन्द्रमा मन और यम ही भगवान की भृकुटी है। उत्कृष्ठता के अभिप्राय से द्यौलोक को शिर कहा गया है, गम्भीरता के अभिप्राय से अन्तरिक्ष को नाभि कहा गया है, प्रतिष्ठा के अभिप्राय से भूलोक को पाद कहा गया है, नेत्रनुग्राहक तथा सर्वप्रकाशक होने के कारण सूर्य को चक्षु कहा गया है। लज्जा भगवान का उत्तरोष्ठ है (लज्जा से जैसे प्राणी उन्मुख न होकर अवनतानन हो जाता है, तद्वत उत्तराधर अवनत ही रहता है। और लोभ अधरोष्ठ है, ज्योत्स्ना दन्त है, माया ही मन्दहास है, सम्पूर्ण भुरुह (वृक्षादि) लोम हैं, मेघ मूर्धज (केश) है। जैसे सप्त वितस्ति (3।। हाथ) का यह व्यष्टि पुरुष है, वैसे ही अपने मान से समष्टि पुरुष भी सप्त वितस्ति है- ‘‘सप्तवितस्तिकामः।’’ परमेश्वराधिष्ठित होने से वैराजरूप की उपासना होती है। इसीलिये ‘पुरुषसूक्त’ में तथा अन्यत्र पुराणों में उपर्युक्त सभी अंग-प्रत्यंगों की भावना भगवान विष्णु में की गयी है। वैसे तो भगवान विष्णु का अखण्ड सच्चिदानन्द ही स्वरूप है, तथापि भक्तानुग्रहार्थ भगवान विशुद्ध सत्त्वमयी लीलाशक्ति के योग से चिदानन्दमय विग्रह को भी धारण करते हैं। वही अतसीपुष्पसंकाश तथा नवनीलनीरदश्यामल या नीलकमलकान्ति भगवान का सगुण, साकार स्वरूप है। उसी स्वरूप को कोई केकीकण्ठाभ कहते हैं, कोई तमालश्यामल कहते हैं। जैसे शैत्य के योग से निर्मल जल ही शुद्ध बर्फ बनता है, घृतवर्तिका के योग से केवल अग्नि ही दाहकत्व प्रकाशकत्वविशिष्ट दीपशिखा के रूप में प्रकट होता है, वैसे ही विशुद्ध सत्त्वमयी लीला शक्ति के योग से चिदानन्द ब्रह्म ही सगुण साकार श्रीविष्णुरूप में प्रकट होता है। |
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