भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
जो भगवच्चरणानुरागी हैं वे भी अपने वर्णाश्रम धर्म का तिरस्कार नहीं किया करते। हाँ, यह अवश्य है कि उनकी मुख्य लगन भगवत्प्रेम के लिये ही होती है। उनकी यह भावना रहती है-
परन्तु यह बात ऐसी है जैसे मच्छड़ को मारने के लिये तोप लगायी जाय। भला जो भगवान सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हैं, जिनके संकल्प मात्र से सम्पूर्ण प्रपंच बन गया है तथा जिनके विषय में यह कहा जाता है- “निःश्वसितमस्य वेदा वीक्षितमेतस्य पंचभूतानि स्मितमेतस्य चराचरम् अस्य च सुप्तं महाप्रलयः।” उन्हें क्या इस तुच्छ कार्य के लिये अवतार लेने की आवश्यकता है? अतः इसका तो कोई ऐसा कारण होना चाहिये जहाँ भगवान की सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता कुण्ठित हो जाती हो और जिसके लिये उन्हें दिव्यमंगल-विग्रह धारण करना अनिवार्य हो जाता हो। हमें इसका उत्तर महारानी कुन्ती के इन शब्दों से मिलता है-
कुन्ती कहती हैं- “भगवन! जो अमलात्मा परमहंस मुनि हैं उनको भक्तियोग का विधान करने के लिये आपका अवतार होता है; हम स्त्रियाँ इस रहस्य को कैसे समझ सकती हैं।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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