भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
अब यह विवेचन करना रहा कि ब्रह्म की वह बृहत्ता सापेक्ष है या निरपेक्ष, सातिशय है या निरतिशय? अर्थात जैसे घट, पट, मठ आदि में बृहत्ता है और आकाश में भी, परन्तु घटपटमठादि में सापेक्ष बृहत्ता है और आकाश में निरपेक्ष है, वैसे ब्रह्म में कैसी बृहत्ता होनी चाहिये? इस पर विज्ञजनों की सम्मति यही है कि जब कोई संकोचक पद हो तब ब्रह्म में सापेक्ष बृहत्ता की कल्पना की जाय। जैसे “सर्वे ब्राह्मणा भोजनीयाः” इस वचन में सर्व पद का संकोच किया जाता है। जहाँ सार्वत्रिक सार्वदेशिक सर्व ब्राह्मणों का एकत्रीभाव या भोजन असम्भव हो, वहाँ “निमन्त्रिताः सर्वे ब्राह्मणा भोजनीयाः” इस प्रकार सर्वपद का संकोच करके निमन्त्रित सर्व ब्राह्मण का ग्रहण होता है। वैसे यहाँ भी यदि कोई संकोचक प्रमाण होता या निरतिशय बृहता में किसी तरह की अनुपपत्ति होती, तब तो यह कहा जा सकता था कि “इस प्रकार के इतने महान को ब्रह्म कहें।” जब किसी प्रकार को कोई संकोचक प्रमाण नहीं है और निरतिशय महत्ता में कोई अनुपपत्ति नहीं है, तब सर्वप्रकार एवं सर्व से अधिक निरतिशय महान को ही ब्रह्म कहना चाहिये। महत्ता की अतिशयता की कल्पना-परम्परा जहाँ विरत हो जाय, जिससे अधिक बृहत्ता की कल्पना हो ही नहीं सके, उसी को ब्रह्म कहते हैं। फिर भी भगवती श्रुति ने “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म” इस वचन में लक्षण या विशेषण रूप में अनन्त पद का प्रयोग किया है, जिससे निरतिशय बृहत्ता की और भी पुष्टि हो जाती है। इस तरह सर्व प्रकार से सिद्ध हुआ कि निरतिशय महान को ही ब्रह्म कहते हैं। जो वस्तु किसी देश में हो और किसी देश में न हो, वह तो देश-परिच्छिन्न ही है, उसमें निरतिशय बृहत्ता कैसी? और जो कभी मिट जाय वह तो काल-परिच्छिन्न एवं अनित्य है, वह भी अनन्त महान नहीं हो सकती और यदि किसी दूसरी अन्य वस्तु का अस्तित्व हो, तब तो अन्योन्याभाव का प्रतियोगी होने से ब्रह्म वस्तु परिच्छिन्न हो जायगा। अतः फिर भी निरतिशय महत्ता उसमें नहीं हो सकती। इसलिये निरतिशय तथा अनन्त महत्ता के लिये ब्रह्म को सर्व देशकाल वस्तु से अतीत एवं अपरिच्छिन्न मानना चाहिये। अर्थात ऐसा कोई देशकाल या वस्तु नहीं है, जहाँ ब्रह्म न हो, बल्कि “देशकाल वस्तु में ब्रह्म है” ऐसा कथन भी औपचारिक ही है जैसे तन्तु निर्मित पट में तन्तु का अस्तित्व, कनक-निर्मित कटक-कुण्डल-मुकुटादि में कनका का अस्तित्व, तरंग में जल का अस्तित्व एंव कल्पित सर्प में अधिष्ठानरूप से रज्जु का अस्तित्व है, बस उसी प्रकार, “देशकाल वस्तु में ब्रह्म का अस्तित्व है” ऐसा व्यवहार प्राकृत, विवेकी पुरुषों में हुआ करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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