भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
उत्पन्न व्यक्त ज्ञान के सिवा निद्राभंग के अनन्तर एक नित्य सिद्ध निरावरण ब्रह्मरूप अखण्ड बोध को भी अभिव्यक्ति होती है। तत्परतापूर्वक उसी के साक्षात्कार से जीव सदा के लिये बन्धन से मुक्त हो जाता है। विवेकियों का कहना है कि आत्मा के आवरण दो हैं- एक तो दृश्य का स्फुरण और दूसरा अज्ञान। जाग्रत स्वप्न में आत्मा विक्षेपरूप दृश्य से समावृत रहता है और सुषुप्ति में अज्ञान से आवृत होता है। जब समाधि में प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति इन पाँचों वृत्तियों का निरोध होता है, अर्थात जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं से अतीत तुरीयावस्था का आविर्भाव होता है, तब निरावरण विशुद्ध आत्मतत्त्व का दर्शन होता है। अज्ञानादि सब दृश्यों की जो प्रतीति या भान किंवा प्रकाश है, वही अखण्ड एवं अनन्त आत्मा है। बिना प्रतीति, बिना भान, बिना प्रकाश किसी पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं सिद्ध होता। जो पदार्थ है वह अवश्य ही केनचित्क्वचित्कथञ्चित् विज्ञात है, इसी वास्ते प्रतीति के भीतर ही समस्त देश, समस्त काल और समस्त वस्तुएँ हैं। यह सर्वभासक, निर्मल अखण्ड प्रतीति ही परमात्मस्वरूप है। यह अखण्ड प्रतीति आकाश की तरह पीली नहीं है किन्तु ठोस है। जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब का स्फुरण होता है, वैसे ही इस प्रतीति में दृश्य का स्फुरण होता है। जैसे बिना दर्पण-प्रतीति के प्रतिबिम्ब का प्रकाश नहीं होता वैसे ही बिना स्वयं प्रकाश प्रतीति के स्फुरण हुए दृश्य का स्फुरण नहीं होता। अत: श्रुति है- “तमेव भान्तमनुभाति सर्व तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।” जैसे दर्पण-स्फुरण के पीछे प्रतिबिम्ब स्फुरण होता है वैसे ही स्वयं प्रकाश प्रतीति स्फुरण के अनन्तर दृश्य का स्फुरण होता है। असंग, अनन्त, स्वप्रकाश, सद्धन, चिद्धन, आनन्दघन, निरवयव, निष्कल परमात्मा में प्रपंच संसर्ग का प्रकार यही है। सभी वादिगण परमात्मा को अखण्ड, असंग निष्कल तथा अनन्त स्वरूप मानते हैं। ऐसी परिस्थिति में प्रपंच की स्थिति कैसे और कहाँ सम्भव है? या तो प्रपंच को किसी ऐसे देशकाल में रखें जहाँ परमात्मा न हों या परमात्मा को आकाश की तरह सावकाश पोला मानें। परन्तु ये दोनों ही पक्ष शास्त्रविरुद्ध हैं। क्योंकि शास्त्रों ने परमात्मा को ब्रह्म शब्द से बोधित किया है। ब्रह्म शब्द “बृहि वृद्धौ” धातु से बनता है। अतः ब्रह्म शब्द का “बृहत् या महान्” यह अर्थ होता है। इससे यह स्पष्ट हुआ कि सिकी बृहत् या महान वस्तु को ब्रह्म कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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