भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
श्रुतियों में जो “तदैक्षत एकोऽहं बहु स्याम्” (परमात्मा ने ईक्षण=निरीक्षण (विचार) किया है कि एक मैं बहुत हो जाऊँ) इत्यादि रूप से ईक्षण और अहं का उल्लेख मिलता है, इससे भी अहंतत्त्व एवं महत्तत्त्व का ही द्योतन होता है। किसी कार्य के निर्माण में ज्ञान एवं अहंकार की आवश्यकता होती है। व्यष्टि द्वारा ही समष्टि भाव समझे जाते हैं। समष्टि तत्त्व को बुद्ध्यारूढ़ करने के लिये प्रथम व्यष्टि का ही अवलम्बन करना पड़ता है। इसी वास्ते श्रुति ने ही “स एकाकी न रेमे” (उस पुरुष को एकाकी होने के कारण अरति हुई) इसी कारण अब भी प्राणियों को अकेले होने पर रमण, आनन्द नहीं होता। “तस्मादेकाकी न रमते” ऐसा कहा है। यही कारण है कि उपासनाओं में जैसे प्रत्यक्ष शालग्राम अप्रत्यक्ष विष्णु की बुद्धि की जाती है, वैसे ही प्रत्यक्ष व्यष्टि जाग्रत अवस्था एवं स्थूल शरीराभिमानी विश्व में समष्टि स्थूल प्रपंचाभिमानी वैश्वानर की दृष्टि एवं व्यष्टि, स्वप्नावस्था एवं सूक्ष्म शरीराभिमानी तैजस में समष्टि सूक्ष्म प्रपंचाभिमानी हिरण्यगर्भ की दृष्टि तथा व्यष्टि सुषुप्ति अवस्था एवं अज्ञानरूप कारणशरीराभिमानी प्राज्ञ में समष्टि अज्ञानरूप कारणशरीराभिमानी कारण ब्रह्मरूप अव्यक्त की दृष्टि कही गयी है। इससे विपरीत विराट में विश्वदृष्टि नहीं कही गयी क्योंकि समष्टि अप्रत्यक्ष है। आकाश के एक देश में छोटी सी बादल की एक टिकुली देखकर आकाशव्यापी महामेघमण्डल की कल्पना की जाती है। जैसे स्वल्प परिमाण वाले दीप्तिमान अग्नि को देखकर अखण्ड ब्रह्माण्डव्यापक दीप्तिमान अग्नि की कल्पना की जाती है, वैसे ही अनुभूत व्यष्टि अज्ञान एवं ज्ञान तथा अहंकार से समष्टि अज्ञान तथा महत्तत्त्व एवं अहंतत्त्व का भी बुद्धि में आरोहण हो सकता है। समस्त तत्त्व क्रमशः परमात्मा से उत्पन्न और उसी में लीन होते हैं। सुषुप्ति में भी प्रपंच का लय प्रतीत होता है। हम स्पष्ट रूप से देखते हैं कि घोर सुषुप्ति में सोया हुआ पुरुष न कुछ जानता है, न उसे अहंकार होता है और न वह कुछ कार्य कर सकता है, क्योंकि समस्त इन्द्रियगण और अहंकार उस समय अज्ञान में लीन होते हैं। “सन्ने यदिन्द्रियगणेऽहमि च प्रसुप्ते” इसी वास्ते सुषुप्ति अवस्था में रहने वाला आत्मा ही ब्रह्म है, ऐसा प्रजापति के उपदेश को सुनकर इन्द्र को यही अनुपपत्ति प्रतीत हुई थी कि सुषुप्ति में अपने या दूसरे किसी का तो ज्ञान होता नहीं, फिर इसमें पुरुषार्थ ही क्या है? यहाँ भी अहंकारादि का आत्यन्तिक लय नहीं है, क्योंकि जागर में उनकी पुनः प्रतीति होती है। अस्तु, यह तो बहुत ही प्रसिद्ध है कि सुषुप्ति दशा में जीव को कुछ भी ज्ञान नहीं होता। परन्तु इस बात को भी विज्ञ पुरुष ही समझ सकते हैं कि “मैं सुखपूर्वक और कुछ भी नहीं जाना।”- इस प्रकार की जो स्मृति सुषुप्ति से उत्थित पुरुष को होती है, यह भी बिना अनुभव के असम्भव है, क्योंकि बिना अनुभव के कोई स्मरण नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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