भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
जब ब्रह्मा ने श्रीकृष्ण के गोवत्सों और वत्सपालों का हरण किया, तब एक वर्ष पर्यन्त श्रीकृष्ण ही वत्स और वत्सपाल के रूप में व्यक्त हुए। उस समय समस्त गौओं को अपने-अपने बछड़ों में और व्रजदेवियों को अपने-अपने शिशुओं में ऐसा अभूतपूर्व लोकोत्तर प्रेम हुआ, जैसा कभी अपने मुख्य अंगजों में नहीं हुआ था। इस बात को श्रीशुकदेव के मुखारविनद से श्रवण करके जब श्रीपरीक्षित जी ने आश्चर्य प्रकट करते हुए इसका कारण पूछा, तब श्रीशुकदेव जी ने यही कहा कि राजन! संसार में समस्त वस्तुओं की अपेक्षा आत्मा ही प्रिय होता है; तदितर पुत्र, वित्त, कलत्रादि आत्मा के लिये ही प्रिय होते हैं। देह को ही आत्मा मानने वाले जो देहात्मवादी हैं, उन्हें भी जितना देह प्रिय है, उतने देह-सम्बन्धी पुत्रादि नहीं। श्रीकृष्ण समस्त जीवों के अन्तरात्मा हैं, अतः समस्त प्राणियों के निरतिशय एवं निरुपाधिक प्रेम के आस्पद हैं, अतः उनमें अपने आत्मजों की अपेक्षा अधिक प्रेम होना युक्त ही है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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