भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
जिसमें प्रेम किसी दूसरे के लिये होता है, उसमें कभी प्रेम का अभाव भी हो जाता है, क्योंकि वह औपाधिक प्रेम होता है। अत: अनित्य एवं सतिशय होता है, जैसे अनुष्ण जल में उष्णता अग्नि के संसर्ग से होती है, स्वतः नहीं, वैसे ही जल में औपाधिक उष्णता अनित्य एवं सातिशय है, परन्तु जिस अग्नि के संसर्ग से जल में उष्णता व्यक्त हुई, उस अग्नि में तो उष्णता नित्य एवं निरतिशय है। इसी तरह संसार की समस्त वस्तुओं में प्रेम आत्मा के संसर्ग से ही होता है। वित्त, क्षेत्र, साम्राज्यमात्र में प्राणियों को प्रेम नहीं होता, क्योंकि कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में, साम्राज्यादि अनेक प्रकार के अभ्युदय सम्बन्धी साधन हैं ही। मान लीजिये कि हम और हमारा देश किसी राष्ट्र के बिल्कुल परतन्त्र हो, हमारा सर्वस्व किसी ने अपहरण कर लिया हो, तो भी सम्पत्ति और राष्ट्र या साम्राज्य आक्रमणकारी अपहर्ता के पास तो हैं ही, उसमें हमें सन्तोष क्यों नहीं होता? यहाँ विज्ञसम्मत हेतु यही हो सकता है कि यद्यपि कहीं तो सब कुछ है सही, तथापि वह हमारा तो नहीं है। वित्त, क्षेत्र, राष्ट्र या साम्राज्यमात्र में ही हमारा प्रेम नहीं होता, किन्तु हमारा ‘अपने’ वित्त, क्षेेत्र, राष्ट्रादि में प्रेम होता है। इस तरह स्वसम्बन्ध से ही स्वदेश, स्वराज्य, स्ववित्त, स्वक्षेत्र में प्राणियों को अधिक प्रेम होता है। सुन्दर पुत्रकलत्र में भी स्वसम्बन्ध होने से ही प्रेम होता है। सुन्दरी कामिनी में भी “यह मुझे मिले, मेरी हो जाय” इस तरह स्वसम्बन्धित्वापादन की ही रुचि होती है। इसी तरह “उच्च से उच्च ऐश्वर्य मुझे, मेरे देश को, मेरे सम्बन्धियों को हो” इस प्रकार स्वसम्बन्धी में ही, स्वानुकूल में ही, प्रेम दृष्टि-गोचर होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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