भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
जैसे उत्पत्ति विनाश वाले, साभासवृत्तिरूप ज्ञान जड़ होते हुए भी घट की अपेक्षा चेतन कहे जाते हैं, वैसे ही लोकसिद्ध मिथ्या रज्जुसर्पादि की अपेक्षा अबाध्य होने के कारण घटादि भी सत्य कहे जाते हैं। इन्हीं आपेक्षिक नित्य-चेतन, सत्य, सरस पदार्थों को वेदान्ती सकल सत्शास्त्रों के महातात्पर्य का विषयीभूत, निखिल रसों के समुद्गम-स्थान, भगवान की अपेक्षा अनित्य, जड़ नीरस, दुःखरूप या व्यवहारोपयुक्त, व्यावहारिक नित्य, व्यावहारिक सत्य, व्यावहारिक चेतन अथवा व्यावहारिक सुख कहते हैं। पारमार्थिक सत्य, चैतन्य, नित्यआनन्दरस-स्वरूप तो भगवान ही हैं, इसी अभिप्राय से “नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनाम्”, “सत्यस्य सत्यम्” इत्यादि श्रुति-वचन भगवान को नित्य का नित्य, सत्य का सत्य कहते हैं। गोस्वामी श्रीतुलसीदास जी भी अपने राम को प्राण के प्राण, जीव के जीव, सुख से सुख कहते हैं-
जैसे घटाकाश का जीवन महाकाश और तरंग का जीवन समुद्र है, वैसे ही जीव के जीवन भगवान हैं। अस्तु, इस तरह सिद्ध हुआ कि पमार्थतः सब कुछ भगवान ही हैं। भगवान से भिन्न जो कुछ प्रतीत होता है, वह मिथ्या ही है। जैसे रज्जु में सर्प का भ्रम होता है, वैसे ही परमात्मा में प्रपंच का भ्रम है। यही सत्य से मिथ्या पदार्थ की उत्पत्ति का प्रकार है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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