भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
जैसे शक्ति की स्थिति, प्रवृत्ति और प्रकाश अपने आधारभूत शक्तिमान से ही होते हैं, वैस ही अचित् की स्थिति, प्रवृत्ति और प्रकाश अचित् के आधारभूत चित् के ही परतन्त्र हैं। यह स्पष्ट ही है कि अचित् की प्रवृति और प्रकाश चित् ही से है। यदि वह स्वतः प्रकाश हो तब तो उसे अचित् ही नहीं कह सकते। ऐसे ही अज्ञान की स्थिति, प्रवृत्ति और प्रकाश यह सभी ज्ञानस्वरूप परमात्मा से ही है। अत: “मैं अज्ञानी हूँ” इस प्रकार अज्ञान का प्रकाश नित्य अखण्ड ज्ञानस्वरूप साक्षी से ही होता है। यहाँ यह समझना चाहिये कि ज्ञान दो प्रकार का है। एक तो अंतःकरण की चैतन्य प्रतिबिम्बोपेत वृत्तिरूप, जो उत्पन्न होने वाले और विनाशी रूप से लोक में शब्द-ज्ञान, स्पर्श-ज्ञानादि रूप से प्रसिद्ध है और दूसरा स्वप्रकाश चैतन्यानन्द ब्रह्मरूप, जो लौकिक ज्ञान और निद्रा-आज्ञानादि का भासक, कूटस्थरूप, “सत्यं ज्ञानमनन्तं”, “विज्ञानमानन्दं ब्रह्म” इत्यादि श्रुतियों में प्रसिद्ध है। ब्रह्मरूप ज्ञान ही अचिच्छक्तिरूप अज्ञान एवं तत्कार्यरूप सकल प्रपंच को सत्त्व और प्रकाश देकर कार्यकरणक्षम बनाता है। इस तरह परमानन्द रसात्मक भगवान से ही सत्ता, स्थिति, स्फूर्ति प्राप्त करके नीरस, असत्, स्फूर्तिरहित प्रपंच सरस, सत्य, स्फूर्तिमान् सा प्रतीत हो रहा है। अत: जैसे दहन-सामर्थ्यशून्य लौहपिण्ड को अनित्य और सातिशय दहन सामर्थ्य प्रदान करने वाला‚ नित्यनिरतिशय-दहनसामर्थ्य सम्पन्न अग्नि, दग्धा का भी दग्धा कहा जाता है और जैसे अनेक प्रान्ताधिपतियों को राजा बनाने वाला सर्वाधिपति राजराज कहा जाता है, वैसे ही अनित्यों को नित्य, अचेतनों को चेतन, असत्यों को सत्य बनाने वाले वेदान्त-वेद्य परमानन्द रसात्मक भगवान, नित्यों के नित्य, चेतनों के चेतन, सत्यों के सत्य कहे जाते हैं। जैसे सर्वाधिपति राजराज से निर्मित राजगण, प्रान्तीयों की अपेक्षा राजा होते हुए भी, सम्राट की अपेक्षा प्रजा ही हैं; वैसे ही नित्यों के नित्य, चेतनों के चेतन, सत्यों के सत्य, भगवान से निर्मित नित्य, चेतन, सत्य पदार्थ (चिदाभास साभास अन्तःकरणरूप जीव तथा आकाश घटादि) में तथा असत्य रज्जु सर्पादि की अपेक्षा चेतन, नित्य, सत्य होते हुए भी, परमनित्य, सत्य, चैतन्य की अपेक्षा अनित्य, असत्य, अचेतन ही हैं। जैसे आकाश की उत्पत्ति श्रुति-सिद्ध है तथापि क्षणिक पदार्थों की अपेक्षा वह स्थिर है, अतः उसको न्यायसिद्धान्तानुसारी नित्य कहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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