भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
इसीलिये, भावुकगण तत्त्वबोध के अनन्तर भी भक्ति के लिये द्वैत प्रतीति को स्वीकार करते हैं। अतः पूर्ण निरावरण होकर, रसमय आवरण भगवान और भक्त दोनों को अभीष्ट होता है-
निरावरण रूप से प्रत्यक चैतन्याभिन्न परब्रह्म के साक्षात्कार के पहले द्वैत केवल मोह के ही लिये है, परन्तु भक्ति के लिये भावित द्वैत तो अद्वैत से भी सुन्दर है।
पारमार्थिक अद्वैत और भजन के लिये द्वैत, बस इस तरह की जो भक्ति है, वह तो सैकड़ों मुक्तियों से श्रेष्ठ है। इस तरह प्रेमतत्त्वज्ञ, भगवान के साथ आत्मा का अभेद जानकर भी, आहार्य भेदभाव से भगवान को भजता है।
प्रियतमा चाहे प्रेमोद्रेक में अपने प्रियतम के वक्षःस्थल पर क्रीड़ा करे, चाहे सावधानी से प्रियतम के पाद-पद्म की सपर्या (सेवा) करे, उसके लिये सभी ठीक है। वैसे ही तत्त्वनिष्ठ चाहे अभेद भाव से समाधि में निरत रहे, चाहे भेदभाव से भजन भाव में निरत रहे, उसके लिये दोनों ही शोभा देते हैं। फिर भी रसिकों का कहना है कि-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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