भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
भगवान के साथ भक्त का भेदभाव मिट जाने पर भी सुधीजनों को भेदभाव से ही व्यवहार में भगवान की सपर्या करनी चाहिये। अपने प्रियतम प्राणेश्वर के साथ किसी तरह का छिपाव या भेदभाव न रहने पर भी प्रेयसी प्रियतम को घूँघटपट के ओट से तिरछे नैनों से ही देखती है। “बहुरि बदन विधु अंचल ढाँकी। पियतन चितै भौंह करि बाँकी।।” कितना सुन्दर भाव है। श्रीजानकी जी ग्रामबधूटियों के पूछने पर अपने देवर लषनलाल का वर्णन करके, अपने प्राणेश्वर का संकेत कितने मधुर मनोहर सुन्दर ढंग से करती हैं। बस, वह कवि के अक्षरों से ही व्यक्त होता है। हाँ, तो आवरण, लज्जा, अहंकार सब कुछ लेकर उसे अपने से सम्बन्धित करके, श्रीकृष्ण ने फिर व्रजांगनाओं को दे दिया। यह आवरण, लज्जा और अहंकार बड़ा सरस होता है। यह निरहंकारता आदि का फल होता है। भगवान का दिया हुआ भगवान सम्बन्धी मोह, भगवान की दी हुई सभी वस्तु सरस और मंगलमीय हैं। आवरण, लज्जा, अहंकार के बिना श्रृंगार रस की मिठास ही मिट जाती है। यहाँ नायिका जितने ही आवरण, लज्जा और अहंकार से युक्त होती हैं, जितनी ही उसमें दुर्लभता व्यक्त होती है, उतनी ही अधिकाधिक रस की अभिव्यक्ति होती है। नायिका की शोभा ही लज्जा, मान और आवरण में है, फिर श्रीकृष्ण की प्रेयसी श्रीव्रजांगनाओं में वह सब होना ही था। श्रीवृषभानुनन्दिनी का उद्गार सुनियें-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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