भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
परमानन्द रसामृत सिन्धु भगवान की तरंग स्थानीया उनकी चिदानन्दमयी शक्तियाँ ही जीव हैं। वही भगवान की अन्तरंगा एवं परा प्रकृति या शक्ति पद से कही जाती हैं। “प्रकृति विद्धि परां”, “जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।” जब तरंग के भीतर-बाहर-मध्य में या अंश-अंश में जल भरपूर रहता है, तब महासमुद्र में तरंग का क्या व्यवधान (पर्दा)? वैसे ही जब चिदानन्दमयी जीव शक्तियों के अन्तर-बाह्य सर्वत्र परमानन्द रसामृतमूर्ति श्रीभगवान व्याप्त हैं, तब उन भगवान से जीव का क्या छिपाव? विश्व के स्थूल, सूक्ष्म और कारण त्रिविध शरीरों की समस्त हलचलों का जो कारण एवं भासक साक्षी है, उससे क्या छिप सकता है? प्राणियों के मन, बुद्धि और अहंकार की सभी सद्भावनाओं और दुर्भावनाओं का जो साक्षी है, पिपोलिकाओं की भी समस्त मनोवृत्तियों का जो सर्वथा ज्ञाता है, उससे क्या छिपाव? फिर भी अनादि अनिर्वचनीय मोहिनी शक्ति के प्रभाव से मोहित वे शक्तियाँ भगवान से अपने अंगों को आवृत रखना चाहती हैं और उनसे लज्जा करती हैं। वे ही व्रजांगना हैं, और सर्वान्तरात्मा सर्वसाक्षी ही श्रीकृष्ण हैं। “चैतन्याभासोपेतबुद्धिवृत्तियाँ” भी व्रजांगना कही जा सकती हैं। उनके प्रकाश साक्षी श्रीकृष्ण हैं। यद्यपि साक्षी की अन्तरंगता न समझने से उनसे छिपने की चेष्टा होती है। साभास मनोमयी वृत्तिरूपा श्रुतियाँ भी व्रजांगना हैं, उनका तात्पर्य या हृदय जिस परमतत्त्व में निहित है, उन परमानन्द रसामृतमूर्ति भगवान से उनका क्या अन्तर? जैसे जल में शीतलता, अमृत में मधुरता वैसे ही श्रीकृष्णचन्द्र में श्रीवृषभानुनन्दिनी राधिका हैं। परमानन्द रसामृत मूर्ति श्रीकृष्णचन्द्र की माधुर्याधिष्ठात्री महालक्ष्मी ही श्रीराधा हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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