भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
श्रीकृष्ण की ऐसी उक्ति सुनकर, सरल स्वभाव की व्रजबालाओं ने नग्न स्नान से व्रज भंग मानकर उसकी पूर्ति की कामना से श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। समस्त कर्मों की व्यंगता को दूर करने वाले श्रीकृष्ण हैं।
जिसके स्मरण तथा नामोच्चारण से तप और यज्ञक्रियादि की न्यूनता मिटकर उनकी पूर्ति हो जाती है, उन अच्युत भगवान की वन्दना अवश्यय की कर्मों की व्यंग्यता को मिटा देती है। यहाँ भी स्पष्ट है कि शुद्धभाव से किये गये श्रीकृष्ण प्राप्त्यर्थ व्रत की व्यंग्यता वारणार्थ ही व्रजांगनाओं ने श्रीकृष्ण की आज्ञा मानी। महा महात्याग कर और कठोरातिकठोर कष्ट सहन करके भी व्रजकुमारिकाएँ अपने व्रत की सांगता चाहती हैं। जब श्रीकृष्ण ने अंजलि बन्धन के लिये कहा, तो व्रजांगनाओं ने नीचे ही अंजलि बन्धन किया। श्रीकृष्ण ने कहा कि मूर्धा पर अंजलि बन्धन ही प्रणाम है। जब उन्होंने एक हाथ से आच्छादनीय अंग का आच्छादित करके एक हाथ द्वारा शिर से प्रणाम किया, तब भी श्रीकृष्ण ने कहा-एक हाथ का प्रणाम भी अशास्त्रीय है। फिर उन्होंने निश्चल एवं निष्कपट भाव से श्रीकृष्ण को सर्वान्तरात्मा और सर्वेश्वर समझकर व्रतपूत्यैर्थ प्रणाम किया। वस्तुतः जीव भगवान के सन्मुख निरावरण एवं निष्कपट होने में अनेक तरह से आनाकानी करता है, परन्तु जब भगवान जिस पर अनुकम्पा करते हैं तब किसी न किसी तरह उसे अपने सामने कर ही लेते हैं। यह प्रभु की विचित्र लीला है, बड़े-बड़े मुनीन्द्रगण इसलिये लालायित रहते हैं कि प्रभु मुझे अपने सन्मुख करें, उनमें मेरा मन आसक्त हो, परन्तु जिस पर प्रभु की कृपा होती है उसकी चाहे इच्छा न हो, तो भी उसके शतधा आनाकानी करने पर भी भगवान उसको खींच लेते हैं। तभी प्रेमी लोगों ने कृष्णावेश को ग्रहावेश कहा है। बलि ने भी कहा है कि “नाथ! आप हम सबके परोक्ष गुरु हैं, हम लोगों की इच्छा न होने पर भी बलात् सन्मुख कर लेते हैं। क्योंकि बिना सर्वव्यवधानशून्य निरावण हुए जीव की कृतकृत्यता नहीं होती।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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