भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
देखो, यह सच्छिद्र है तो एक ओर से संभोग करता है, दूसरी तरफ से निकलता है। इसलिये यह दामोदर के अधरसुधा को निर्लज्ज होकर पान करता जाता है। यह अतृप्तिःसर धैर्य छोड़कर पीता ही जाता है। वही वेणुनाद रूप में निकलता है। यह वेणुगीत सुमधुर अधरसुधा वेणुनाद रूप में प्रकट होकर नदियों को मिला। देखो, उस वेणुरव वेणुगीत पीयूष रूप में प्रकट दामोदर के अधर की अधरसुधा का पान कर सरसियों को रोमांच हो रहा है। यही कहा ‘हृष्यत्त्वचः’ जिसके उच्छिष्ट रस को पान कर सरसियों में कमल-कमलिनी विकसित होते हैं - रोमांच हो रहे हैं। बड़े आनन्दोद्रेक में रोमांच होते हैं, तो क्या इसके उच्छिष्ट पान करने वाली -हृदिनी पान करती है तो यह नहीं करता होगा? कैसे कहती हो ‘बहन’! ‘तरवोऽश्रुमुमुचुः’ - सखि! तरुओं में भी उसी नाद से मधुधाराएँ टपकने लगीं। श्रीकृष्णचंद्र जब मुखचंद्र पर वेणु धारण कर गीत विस्तार करने लगते हैं तब लताओं में, वृक्षों में मधुधारा टपकने लगती है। उसी पर व्रजांगनाओं की कल्पना है कि मानो वृक्ष आनन्दाश्रु मोचन कर रहे हैं। शोकाश्रु गरम होते हैं। आनन्दाश्रु ठंडे होते हैं। टोह करके पहिचानना चाहिये। जैसे आर्यजन परमरसामृत सिंधु में अवगाहन कर आनन्दाश्रु छोड़ते हैं, वैेसे ही, अथवा यह, कि वेणु ने जरूर दामोदर के अधरसुधा का भोग किया है, क्योंकि, ये जो सरसी सरिताएँ कमल संयुक्त हो रही हैं, वह यह आनन्द है कि हमारे जल से ही यह बाँस का वेणु सौभाग्यशाली है जो- "गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणुः।" व्रजसीमन्तिनी कहती है - हे सखि, इस वेणु ने कौन-सा पुण्यकर्म किया जो यह दामोदर के अधरसुधा को पान करने लगी, अभी तक तो हृदय में करारविंद में रहती रही, पर अब तो अधरसुधा का संभोग कर रही है। यहाँ पर ‘दामोदर’ से राधादामोदर का द्वंद्व विवक्षित है, तो दामोदर से याने द्वंद्व में एक का नाम लेने से अन्य सम्बन्ध का भी बोध होता है, अर्थात इस वेणु ने रासेश्वरी नित्यनिकुंजेश्वरी जो वृषभानुनन्दिनी है उसके जो प्रियतम प्राणधन श्रीदामोदर हैं उनके समधुर अधरसुधा को भी पान करना आरम्भ किया। इसलिये हमारी स्वामिनी रासेश्वरी नित्यनिकुंजेश्वरी वृषभानुनन्दिनी के प्रियतम प्राणधन मनमोहन श्यामसुन्दर के अमृतमय मुखचंद्र की अधरसुधा हमारी ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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