भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
अथवा- कहा सखि! शुष्क बाँस का वेणु कितना भोगेगा, भोग लेने दो। हमारे श्रीकृष्णचंद्र की अधरसुधा अपरिमित है, अनन्त है। ”अवशिष्टो रसो रागो यस्मिन् तत्।“ यह तो अगाध है, इसलिये कहते हैं आओ, बल्कि वचितों को देखकर घबड़ाते हैं। कहा है- ‘जाकर मन’ जिन्होंने इन परम रसामृत मूर्ति का स्वाद न लिया उनके नाम वह आँसू गिराते हैं। श्रीचैतन्य महाप्रभु इसीलिये रोते थे कि यह लोग श्रीकृष्णरस से वंचित हैं। कुछ लोग कहते हैं- श्रीगौरांग को उन्माद का रोग था। था तो मगर दूसरे ढंग का। भावुक कहते हैं ऐसा उन्माद हमें हो जाय। जहाँ की वस्तु स्थिति ऐसी है, कि ईर्ष्यापूर्वक मिथ्या कल्पना है। यह प्रेम का विचित्र एक भाव है- अतृप्ति है - तृष्णा है। भक्तों को यदि सन्तोष हो कि आज वही पूजा करें तो भक्त कैसे? वह जानते हैं कि हम अगर भोग न लगावें तो प्रभु भूखे रहेंगे। यह भावना हो गयी कि प्रभु तृप्त हैं तो भाव बिगड़ गया। यह सहृदय हृदयवेद्य है। इस अपरिमित अगाधरस में भी भाव का - हमारी सर्वस्वभूता अधरसुधा का संभोग यह वेणु करता है। न जाने यह कितने दिन तक हमारे में हिस्सा बँटायेगा। अथवा- "अवशिष्टं वशिष्टं (वष्टिभागुरिरल्लोपः) न वशिष्टः रसमात्रं यस्मिन्।" इस वेणु ने अधरसुधा का इतना संभोग किया कि रस भी नहीं रह गया। निरवशेष संभोग किया। अथवा- क्या प्रमाण कि शुष्क बाँस का वेणु, ज्यों का त्यों पड़ा हुआ, दामोदर के सुमधुर अधरसुधा का भोग करता है? वह भी सरस होता तो भोगता। इसलिये तुम व्यर्थ बहक रही हो। कहा नहीं, देखो! इसका अवशिष्ट रस हृदिनी में है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज