भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
वेणुरव में ही श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का स्वरूप और उनकी मंगलमयी लीला है। अतः उसके वर्णन में प्रभु का वर्णन है। पहले तो श्रीकृष्ण ही रसामृतमूर्ति हैं। उनमें भी साधनता और साध्यता दोनों हैं। श्रीहस्त और श्रीचरणारविन्दादि अन्यान्य अंगों में साध्यता है और साधनता भी। किन्तु आनन्द केवल साध्य ही है, सब उसी के लिये है, पर वह किसी के लिये नहीं। यही ब्रह्म का लक्षण है। अतः दोनों एक ही हैं। शब्दादि सब पदार्थ आनन्द के लिये हैं, वैसे ही आत्मा के लिये भी हैं। ‘आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति।’ जैसे आनन्द निरतिशय, निरुपाधिक और परप्रेमास्पद है, वैसे आत्मा भी निरतिशय, निरुपाधिक, परप्रेमास्पद हैं। जिसमें कभी प्रेम हो और कभी नहीं, वह अपरप्रेमास्पद है। जो ऐसा नहीं, वह परप्रेमास्पद है। औपाधिक ‘अपर’ और स्वाभाविक ‘पर’ है। औपाधिक उपाध्यधीन होता है और स्वाभाविक उपाध्यधीन नहीं होता। वह मिटता नहीं। संसार के सब प्रेम औपाधिक हैं, जैसे स्त्री-पुत्रादि प्रेम। इतना ही क्यों, संसार में देवता पर भी जब वह अनुकूल होता है तभी प्रेम होता है। मन्त्रों में भी कोई अरिमन्त्र, कोई मध्यम मन्त्र है। जिससे अनुकूल फल नहीं होता वह अरिमन्त्र है। इसी विचार से कहा है कि जब समान तत्त्व और समान साधक मिलें तब मन्त्र सिद्धि ठीक होता है। आजकल तो यह सब विचार ही नहीं है। शास्त्र कहते हैं, पहले ठीक विचार कर लो, फिर मन्त्र लेना। अस्तु, सारांश यह कि जब देवता भी आत्मानुकूल हो तब उनमें प्रेम होता है। देखा जाता है कि शैव विष्णु का द्वेष और वैष्णव शिव द्वेष करते हैं। वास्तव में पूर्णतम पुरुषोत्तम प्रभु एक ही हैं, पर व्यर्थ उनमें द्वेषास्पदता, रागास्पदता की कल्पना करते हैं। राम भक्तों को रामायण में जो मिठास प्रतीत होती है, वह इतर ग्रन्थों में नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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