भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
कई श्रुतियाँ साक्षात प्रभु में तात्पर्य रखती हैं, जैसे ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ इत्यादि। कई परम्परया अग्नि, यम और वरुण आदि की स्तुति द्वारा प्रभु के साथ सम्बन्ध रखती हैं। जिन श्रुतियों का जो अर्थ होता है उनके साथ उनका सम्बन्ध है, यही प्रतिपाद्य-प्रतिपादकभाव सम्बन्ध भी कहा जाता है। रामायण में कहा है- ‘गिरा अर्थ जल बोचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न। बन्दौं सीताराम पद...।’ कहा जाता है कि वाणी और अर्थ का भेद वास्तव में भेद नहीं है। गिरा और अर्थ का सम्बन्ध पति-पत्नी सम्बन्ध है। अर्थ पति और गिरा पत्नी है। ‘कदाचनस्तरीरसि’ यह श्रुति इन्द्रस्ताविका होने से इन्द्रपत्नी है। जिसका जो प्रतिपाद्य है, वही उसका पति है। वैसे ही जिनका साक्षात परमात्मा ही अर्थ है, अन्य अर्थ नहीं, उनके साक्षात पति परमात्मा ही हैं। जिनका आपाततः अर्थ अन्य है, परन्तु महातात्पर्य ब्रह्म में है- अवान्तर तात्पर्य इन्द्रादि में और महातात्पर्य ब्रह्म प्रकाशन में है, ऐसी श्री श्रुतियाँ हैं। इसलिये एक श्रुति ऐसी है जिसका मुख्य पति परमात्मा ही है। जैसे ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ इत्यादि यही प्रभु की स्वकीया हैं, और जो इन्द्रादि का प्रतिपादन करती हुई प्रभु में पर्यवसित होती हैं, उनके अवान्तर पति इन्द्रादि और मुख्य पति प्रभु ब्रह्म हैं। ऐसी परिस्थिति में कहा कि ‘कथमयथाभवन्ति भुवि दत्तपदानि नृणाम्’ अर्थात कोई कहीं भी पैर रखे, आखिर वह पृथ्वी पर ही है। इस प्रकार सब तत्त्व परम्परा से ब्रह्म ही में है। कटक, मुकुट, कुण्डलादि क्या सुवर्ण नहीं हैं? समुद्र की लाखों तरंगें समुद्र ही से हैं, परमात्मा से बने इन्द्रादि सब परमात्मा ही हैं। मीमांसक जाति में शक्ति मानते हैं, वह ‘त्व’ प्रत्ययवेद्या है। जैसे घटत्व अर्थात घट का भाव, घटरूप में परिणत मृत्तिका, एवं मृत्तिकात्व का अर्थ जल, जलत्व का तेज, तेजस्त्व का वायु, वायुत्व का आकाश, आकाश का अहंतत्त्व, उसका महत्तत्त्व,? उसका अव्यक्त और उसका सत्तत्त्व में पर्यवसान होता है। इसलिये सबका अर्थ वही है। ‘सा सत्ता सा महानात्मा तामाहुस्त्वतलादयः।’ अतः जितनी जातियाँ हैं, सबका पर्यवसान ब्रह्म में ही है।
अर्थात सब वस्तुओं का भावार्थ-स्वकारण में पर्यवसित होता है, उसका भी सत्ता में, और वही सत्ता शुद्ध याथात्म्य ब्रह्म है, फिर श्रुतियों का अर्थ ब्रह्म में पर्यवसित हो इसमें क्या आश्चर्य? आखिर शब्द कहेंगे किसको? प्रपंच को, वह तो परब्रह्म ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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