भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
अर्जुन समझ गया, उसने धर्मराज के लिये ‘तुम’, ‘तुम’ शब्द का कई बार प्रयोग किया। इतने से युधिष्ठिर उद्विग्न हो गये। यह देखकर अर्जुन कहने लगा- ‘अब मैं आत्महत्या करूँगा, मैंने धर्मराज के लिये ‘त्वं’ पद का प्रयोग किया।’ कृष्ण ने कहा- ‘पागल है, तू अपनी बड़ाई-आत्मश्लाघा कर, यही अपना वध है। फिर अपनी खूब बड़ाई अर्जुन ने गायी। इस तरह भगवान ने चातुर्य से पाण्डवों की नैया को पार लगाया। इसीलिये कहा है कि “कैवर्तकः केशवः”। इसीलिये धर्माधर्म का गौरव-लाघव सोचना चाहिये। यदि सर्वधर्म का शत्रु जालन्धर अन्य उपायों से नहीं मरता, तब एक धर्म को विघटित कर अनन्त धर्म का संगठन करना नैतिक ही है। दूसरी दृष्टि से देखें तो वास्तव में वहाँ पातिव्रत्य भंग ही नहीं हुआ, क्योंकि विष्णु वृन्दा के परम पति थे। वस्तुतः पातिव्रत्य धर्म से भी विष्णु सम्बन्ध को ही तो प्राप्त करना है। सारांश यह निकला कि पहले वृन्दा भगवदीयाही थी, गोलोक धाम-निवासिनी थी, दुर्दैववशात् जालन्धर भोग्या हो गयी थी। यह वृन्दा प्राणियों की बुद्धि है, वास्तव में इसका सम्बन्ध मुख्य साक्षी से ही होना चाहिए। इसलिये बुद्धि का पूर्णतम पुरुषोत्तमाकाराकारित होना, यही स्वाभाविक सफलता है। दुर्दैव यह है कि वह जगदाकाराकारित हो रही है। जीवों को बुद्धि मिली है भगवत्प्राप्ति के लिये सांसारिक निर्णयों के लिये नहीं। इसलिये इसकी परम सफलता इसी में है कि भगवत्संबन्ध सुस्थिर हो, वहाँ भगवदभिव्यक्ति हो। यह प्रभु की महान कृपा है कि दैत्य सम्बन्ध छुड़ाकर उस दैत्यभोग्या वृन्दा को भगवद्भोग्या बनायें। यही स्थिति संसार में भी है। बुद्धियों पर शैतान का अधिकार है या भगवान का? साधारण बुद्धि शैतान भोग्या हो गयी हैं, तभी तो वह पाप, ताप, दम्भों में लगायी जाती है। उसका फल ही है नाना योनियों में भटकते रहना। वास्तव में घट उत्पन्न होते ही आकाश से परिपूरित हो जाता है; जल, दुग्ध या मृत्तिका से पीछे परिपूरित होता है। इसी तरह बुद्धि उत्पन्न होते ही आकाशोपम परमात्मा से ही भरपूर हुई, इसमें प्रपंच जो भरा है वह आगन्तुक है। तथापि बुद्धि इस प्रपंच की पतिव्रता हो गयी है। एक क्षण के लिये भी उसमें से प्रपंच नहीं निकलता। यही बुद्धि का दृश्य में राग, प्रीति, पातिव्रत्य हठ हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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