भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
भगवान के चरणों को आनन्द देने वाला, व्रजांगनाओं को ‘घबड़ाओं मत! प्रभु के चरणों को कष्ट नहीं होगा’ ऐसा आश्वासन देने वाला जो वृन्दारण्य धाम, उसमें गोपवृन्दों के संग गीत कीर्ति भगवान पधारे। यह वृन्दा का अरण्य है। वृन्दा याने तुलसी। पहले जो वृन्दा जालन्धर दैत्य की पत्नी थी, उसका अरण्य। तात्पर्य यह कि जो दैत्यभोग्या वृन्दा थी, वह अब भगवदीया-भगवान की वस्तु हो गयी। यह वृन्दा-तुलसी-लक्ष्मी, वृषभानुनन्दिनी की तरह गोलोक धाम में रहने वाली भगवदीया दिव्य महाशक्ति थी, किन्तु किसी प्रकार के दुर्देव से भगवान की महाशक्ति भगवद्भोग्या होती हुई भी दैत्यभोग्या हो गयी और महारागिनी हुई। अरुचिपुरःसर जालन्धर दैत्य के प्रति रागिणी हो उठी। फिर पूर्णतम, पुरुषोत्तम, श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द ने अपनी अनुकम्पा-विशेष से दैत्य का वध कर वृन्दा को स्वीकार किया। कथा ऐसी है कि- जालंधर से श्रीशिव का संग्राम हो रहा था। उसकी पत्नी पतिव्रता वृन्दा थी। जब तक उसका पातिव्रत्य भंग न हो, तब तक जालन्धर का वध नहीं हो सकता था। इसलिये श्रीमहाविष्णु ने जालन्धर का वेश धारण किया और वृन्दा के घर में जाकर जब उसका पातिव्रत्य भंग किया, तब वह दैत्य मरा। यह ऊपरी भाव जरा टेढ़ा है। लोग कहेंगे कि श्रीमहाविष्णु ने ऐसा कैसे किया? परन्तु अन्तरंग भाव कुछ और है। धर्माधर्म के विचार में उनका गौरवलाघव देखा जाता है। जालन्धर स्वयं पातिव्रत्य नहीं मानता था, वेदोक्त मर्यादा को विघटित करता था। फिर जो सर्व धार्मिक मर्यादाओं का व्यापादक है, वह पातिव्रत्य क्या जानता? ऐसे सर्वधर्मनाशक जालन्धर का नाश करने के लिये किंचित् धर्मव्यत्तय भी करना हो, तो वह सह्य है। एक सत्य से दस हजार गो-ब्राह्मणों का वध होता हो, तो उससे क्या लाभ? वहाँ तो झूठ ही बोले। वहाँ सत्यभाषण मिथ्याधर्म है। यदि हमारे सत्य से अपरिमित धर्म की हानि होती हो, तो उसकी महिमा नहीं है। अर्जुन की प्रतिज्ञा थी कि हमारे गाण्डीव धनुष की जो निन्दा करेगा उसका सिर उतार लूँगा। एक बार प्रसंग ऐसा आया कि कर्ण से युद्ध में विहल हुए धर्मराज ने ही गांडीव की निन्दा कर दी। सुनकर अर्जुन ने सोचा-मैं क्षत्रिय हूँ, मेरी प्रतिज्ञा सुदृढ़ है। युधिष्ठिर को मारने के लिये अर्जुन ने तलवार निकाल ली। भगवान श्रीकृष्ण बीच में पड़े और अर्जुन से कहा-‘अरे! तू धर्म जानता भी है? परमाराध्य ज्येष्ठ भ्राता धर्मराज क्या तेरे वध्य हैं? प्रतिज्ञापालन के लिये उनको ‘युष्मत्’ शब्द से सम्बोधित कर, यही बड़ों का वध है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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