भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
कहते हैं मलयाचल पर चन्दन वृक्ष के संपर्क से, संपूर्ण वृक्ष चन्दन हो जाते हैं, मगर बाँस, बाँस ही रह जाता है। औरों में हृदय है, और सब पोले, हृदय शून्य सच्छिद्र नहीं है, बाँस हृदय शून्य निःसार है। कहते हैं, ग्रन्थि रहना अच्छा नहीं। एक चिज्जड़ ग्रन्थि न जाने कब की है। यह ग्रन्थि मिटना कठिन है। कहते हैं, अमुक बड़े गठीले चित के हैं। बाँस में तो गाँठ ही गाँठ है। एक छिद्र हो तो सहस्रों अनर्थ उत्पन्न होते हैं, यहाँ 7 छिद्र हैं, अतः उस पर प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिये अधरसुधा ने ये सोचकर, वेणुछिद्रों में रस भरकर उसे सप्राण किया था, पर उस वेणु को छोड़कर वह व्रजांगनाओं के निरावरण कर्ण कुहरों द्वारा वेणुगीत रूप में उनके हृदयों में पहुँचा। यहीं उसने अपना सब विक्रम, सब माधुर्य व्यक्त किया। यहाँ पर चक्रवर्ती ने ऊपर के कुछ थोड़े भाव कहे हैं, अथवा अधरा नीचीना (तुच्छा, अपकृष्टा) सुधा अपि यस्याः सकाशात् सा अधरसुधा, श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द की अधरसुधा में ऐसी मधुरिमा है, जिससे सुधा भी अति तुच्छ मालूम हो। अर्थात् देवताओं के, चन्द्रमा के और धन्वन्तरि के अमृत को अपकृष्ट बनाने वाली, यह जो अधरसुधा, उससे भगवान वंशी को पूरित करने लगे। वंशी में सुमधुर अधरसुधा प्रविष्ट होती है, वह भी स्वयं अमूर्त है। छिद्र में आकाश भरा है। अमूर्त पदार्थ से आकाश निश्च्छिद्र नहीं होता। अतः अमूर्त रस से वंशी निश्च्छिद्र न हुई। वास्तव में वेणु को भगवान ने अधरसुधा दी ही नहीं, केवल संपर्क होने से क्या होता है? प्रभुकृपा से वह जिसको मिले, उस पर ही प्रभाव होता है। उसी जल में जोंक, उसी में कमल, उसी में मछली रहती है। अधिकारी, योग्य पात्र ही वस्तु को ग्रहण करता है, अर्थात वेणु को वास्वत में अधरसुधा का संप्रदान ही नहीं हुआ। वह केवल वेणुपात्र द्वारा व्रजांगनाओं को भेजी गयी। दर्वी से रस चलाया-परोसा जाय, परन्तु दर्वी को रसास्वाद थोड़े ही आता है। वह तो रसोपभोग सामग्री है। वेणुपात्र द्वारा अधररस गोपांगनाओं को दिया गया, इसिलये कि गोपांगनाएँ सन्निहित नहीं थीं। वृन्दारण्यस्थ श्रीकृष्ण परमानन्दकंद की अधरसुधा का संभोग व्रजस्थिता व्रजांगनाओं को कैसे हो, अतः अधरसुधा को साधनभूत वेणु के छिद्रों में भरकर व्रजांगनाओं के हृदय में पहुँचाया। वेण दर्वी के समान होने से सूखी, सच्छिद्र ही रह गयी। यहाँ केवल श्रीप्रभु की इच्छा ही कारण है, वेणु सबके लिए समान है। जैसे स्याति बिन्दु बाँस में वंशलोचन, गो में गोरोचन, शुक्ति में मुक्ता, गजकर्णी में गजमुक्ता होता है, वैसे ही अधरसुधा भिन्न-भिन्न पात्रों में पड़ती है, वेणु केवल उसको विभिन्न पात्रों में पहुँचाने वाली हुई। यहाँ कई पक्ष हैं। यों तो जब श्रीव्रजांगना वेणु पर प्रसन्न हों, तब प्रशंसा ही करती हैं, ‘याचेऽहं वंशदेहम्’। कहती थी- “सखि! हम तो वंशदेह की याचना करती हैं। यदि विधाता हमारे ऊपर प्रसन्न हों, तो हमें वंश देह दें। गोपांगना देह में हमें कृतार्थता नहीं है। यदि वंशदेह होता तो सम्भव था कि कभी भगवान के अधर पर सोती, अधरसुधा का आस्वादन करती पर हम तो कुलांगना ठहरी, हमें यह अवसर प्राप्त नहीं हो सकता।” जब गोपांगना वेणु की ईर्ष्या करती तब तो उसके दोष ही दोष कहती थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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