भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
यह श्रवण कर बानर ने कहा, ‘हाँ, मैं वही हूँ।’ तब भीमसेन ने उनको प्रणाम कर कहा कि मैं आपका वह दिव्य स्वरूप देखना चाहता हूँ, जिसको धारण कर आपने राक्षसों का संहार किया था। हनुमान ने कहा, ‘उस रूप को देखने की तुम्हारी सामर्थ्य नहीं है। अतः उसको देखने का आग्रह मत करो।’ परन्तु भीम ने जब अपना आग्रह न छोड़ा, तब भीम के हठ को देखकर हनुमान ने अपना वह कनक भूधराकार परमतेजोमय दिव्यरूप धारण करना आरम्भ किया। अभी पूर्ण रूप देेख भी न पाये थे कि उसके प्रचण्ड तेज से भीम की आँखें झँप गयीं, मूर्च्छित हो गये। हनुमान ने अपना रूप संवृत्त कर भीम को सावधान किया और कहा कि ‘अब तुम यहाँ से ही पीछे लौट जाओ, आगे की दिव्य सुवर्ण रत्नमयी भूमि आदि देखने योग्य तुम्हारी सामर्थ्य एवं योग्यता नहीं है।’ ऐसे ही द्वित, त्रित नामक महर्षियों को घोर तपस्या के बाद श्वेतद्वीप में कुछ नहीं दिखाई दिया। बहुत तपस्या के बाद एक व्यक्ति का दर्शन हुआ। उसने कहा, ‘इस जन्म में तुम्हें यहाँ और कुछ न दिखाई देगा, रामावतार में तुम भगवान का दर्शन कर सकोगे।’ तात्पर्य यह कि प्रत्येक वस्तु के दर्शन में योग्यता की अपेक्षा होती है। वह योग्यता धर्माधर्म कृत ही है। इसलिये यह कहना भी संगत नहीं है कि भगवान दिखलाई नहीं देते, अतः हैं ही नहीं। क्योंकि आज के मनुष्यों की वैसी योग्यता न होने से, पुण्य की कमी से उनका दर्शन नहीं होता। अस्तु, श्रीमद्वृन्दावनधाम की अलौकिक दिव्य शोभा का तो फिर कहना ही क्या है? अरविन्द, मालती, चम्पक, मल्लिका आदि अनेक विध विकसित पुष्पों के सौगन्ध्य से मत्त भृंग और हंस, कारण्डव, चक्रवाक, पारावत, शुक, मयूर आदि विहंगमों के आनन्दोद्रेक में प्रेमोन्माद में होने वाले कलवर के झंकार से जिसके वनराजि, सरोवर, सरित्, सरसी, निर्झर, पर्वत आदि प्रतिध्वनित निनादित हो रहे हैं ऐसे श्रीमद्वृन्दारण्यधाम में भगवान श्रीकृष्ण, बलराम, गोपालों के साथ गौओं को चराते हुए पधारे “मधुपतिरवगाह्य चारयन् गाः।” यहाँ श्रीकृष्ण के लिये मधुपति पद का प्रयोग किया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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