भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
श्रीवृन्दारण्य की शोभा का वर्णन क्या किया जाय? फूले हुए वनों की पंक्तियों से सुशोभित मत्तभ्रमरावली के मधुर गुंजार एवं पक्षिगणों के मनोहर कलरव से वृन्दावनधाम के सरोवर, सरिता, वृक्ष, लता पर्वतादि परम शोभित और निनादित हो रहे हैं। कहीं कांचनमयी भूमि में मरकतमणिमयी श्यामल दूर्वाएँ सुशोभित हैं, कहीं मरकतमणिमयी भूमि पर कांचनमयी दूर्वाएँ शोभायमान हैं। कहीं पद्मरागमणिमय वृक्षों पर स्फटिक मणिमयी दिव्य लताएँ विकसित हैं, तो कहीं स्फटिक मणिमय स्वच्छ तरु पर पद्मराग मणिमयी सुन्दर लताएँ विराजमान हैं। कहीं महेन्द्र नीलमणिमयी भूमि पर कांचनमयी दिव्य दूर्वाएँ सुशोभित हो रही हैं, तो कहीं कांचनमयी देदीप्यमान भूमि पर महेन्द्रनीमणिमयी दूर्वाएँ विस्तृत हैं। यह प्राकृत कथा का वर्णन नहीं है। आज का मत तो कहता है कि जो दीखता नहीं, वह है ही नहीं। आज श्रीवृन्दावन की वह लोकोत्तर शोभा दृष्टिगोचर नहीं होती, अपितु सर्वत्र रूक्षता एवं कण्टकाकीर्ण वृक्ष ही दिखलाई पड़ते हैं। वैसे ही काशी की भी दिव्य अलौकिक शोभा का वर्णन पुराणों से जाना जाता है, किन्तु लोगों को यहाँ भी ईंट, चूना, पत्थर ही दिखलाई देते हैं। कहा जाता है कि आधुनिक वैज्ञानिकों ने समस्त भूमण्डल का पता लगा लिया, उन्हें सुमेरु, सप्तद्वीप, क्षीरसिन्धु आदि न मिले होते तो अवश्य दिखलाई पड़ते, परन्तु कहना पड़ेगा कि कुछ ऐसी भी स्थिति है कि, जो हो और दिखलाई न पड़े। प्रत्येक वस्तु के दर्शन में कुछ सुख अथवा कुछ दुःख होता है। अतः मानना पड़ेगा कि वस्तु दिखलाई पड़ने में पाप-पुण्य रूप अदृष्ट की भी हेतुता है। क्यों किसी वस्तु को देखने पर दुःख और घृणा होती है? कोई भी कार्य बिना कारण के नहीं होता। सुख-दुःख को देखकर उनके कारण पुण्य-पाप का अनुमान करना चाहिये। अतः यह दर्शन नहीं प्राप्त होता। इसमें हेतु हमारे वैसे अदृष्ट का अभाव है, न कि उन वस्तुओं का अभाव। ‘महाभारत’ में एक कथा है कि अलकनन्दा में बहकार आये हुए किसी एक दिव्य सौगन्ध्य, सौन्दर्यसम्पन्न पुष्प को देखकर द्रौपदी ने उसकी जोड़ी का दूसरा पुष्प लाने के लिये भीमसेन से आग्रह किया। भीमसेन ने अलकनन्दा के तट से जाते-जाते बहुत दूर तक जाने पर मार्ग में एक वृद्ध बानर को देखा, जो अपनी पूँछ से मार्ग को रोके हुए सोया था। भीम ने उससे अपनी पूंछ हटा लेने के लिये कहा। बानर ने उत्तर दिया कि ‘मैं अत्यन्त वृद्ध होने के कारण उसे हटा सकने में असमर्थ हूँ, तुम हटा लो।’ भीम ने पहले हाथ की दो अंगुलियों से उसकी पूंछ हटाना चाहा, परन्तु जब न हटा सके, तब एक हाथ से जोर लगाया। अन्ततः दोनों हाथों की पूर्ण शक्ति से प्रयत्न करने पर भी जब पूंछ अपने स्थान से तिलमात्र भी न हटी, अपितु मूर्च्छित हो गये, तब थोड़ी देर में सावधानी आने पर आश्चर्यचकित होकर उन्होंने बानर से कहा- “मैंने सुना है कि मेरे भाई कोई हनुमान नामक हैं, जो अत्यन्त बलवान हैं, उन्होंने त्रेता में लंका-विजय में रामचन्द्र की बहुत सहायता की थी। क्या आप वही हनुमान तो नहीं हैं?” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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