भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री शिवतत्त्व
इन श्रुतियों से प्रोक्त रुद्र तो महाकारण या कार्यकारणातीत शुद्ध ब्रह्म ही है। यह भी ‘रोदनात् रुद्र’ है, प्रलयकाल में सबको रुलाने वाले यही हैं।
अर्थत ब्रह्मक्षत्रोपलक्षित समस्त प्रपंच जिसका ओदन (भात) है, मृत्यु जिसका उपसेचन (दूध, दही, दाल या कढ़ी) है, उसे कौन, कैसे, कहाँ जाने? जैसे प्राणी कढ़ी, भात मिलाकर खा लेता है, बस विश्वसंहारक काल और समस्त प्रपंच को मिलाकर खाने वाला परमात्मा मृत्यु का भी मृत्यु है, अतः महामृत्युंजय है; काल का भी काल है, अतः कालकाल या महाकालेश्वर है। यदि कोई भी बच जाय, तब तो उसकी सर्वसंहारकता में बाधा उपस्थित होती है, अत एव ‘‘योऽवशिष्येत’’ वही एक ब्रह्म है। इसीलिये विष्णु भी वही है, यदि वे शिव या रुद्र से पृथक होगे, तब महामृत्युंजय, महाकालेश्वर, सर्वसंहारक से सृहृत हो जायँगे, अन्यथा एक को छोड़कर सर्व की सहारकता ही शिव में समझी जायगी। सर्वसंहर्त्ता के सामने दूसरी जो भी चीज उपस्थित होगी, वह उसका अवश्य संहार करेगा। अतः यदि कोई बचेगा तो उसका आत्मा ही बचेगा, क्योंकि अपने में संहार्य-संहारकभाव नहीं बनता। इसीलिये शिव की आत्मा विष्णु और विष्णु की आत्मा शिव है। वहाँ भिन्नता है ही नहीं, जिससे परसमवेतक्रियाशालित्वरूप कर्मत्व का योग हो। सर्वसंहारक में ही निरतिशय प्रोबल्य एवं परमेश्वरत्व, सर्वोकृष्टत्व सिद्ध होता है। शेष जो भी उससे भिन्न अवशिष्ट होते है, उन सबका संहार हो जाता है। अतः उनका अनीश्वरत्व, निकृष्टत्व, विधेयत्व, तद्वशवर्त्तित्व सुत्तरां सिद्ध होता है। जो परमेश्वर भक्तों, प्रेमियों और ज्ञानियों के निरतिशय, निरुपाधिक परप्रेम के आस्पद होते हैं और परमानन्दरसरूप होते हैं, वही अभक्तों के लिये प्रचण्ड मृत्यु रूप होकर उपलब्ध होते हैं और उनसे सब भयभीत होते हैं। संहार और शासक से सबको भय होना स्वाभाविक है। इसीलिये कहा गया है कि, ‘‘महद्भयं वज्त्रमुद्यतम्।’’ अर्थात परमेश्वर उद्यत वज्र के समान महाभयानक है। उसी के भय से सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु, इन्द्र नियम से अपने-अपने काम में लगे हैं। उसी से मृत्यु भी दौड़ रही है-
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