भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुरव
श्रीराम ने भालु, बन्दरों को लेकर प्राकृत शतयोजन समुद्र पार किया, किन्तु नाम लेने से अपार भवसिन्धु सूख जाता है, अतः सबसे नाम बड़ा है। वेदान्त भी कहते हैं कि वाक्य-श्रवण के तत्त्व साक्षात्कार होता है। भक्त भी भगवत साक्षात्कार का मूल श्रवण ही मानते हैं। निर्गुण साक्षात्कार में भी श्रवण की ही अपेक्षा है। व्रजांगनाओं को भी उद्बुद्ध उभयविध श्रृंगार रसात्मा श्रीकृष्ण के लिये वेणुरव ही अपेक्षित है। इसलिये वे मूल वेणुरव को पकड़ती हैं कि उसी से श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द व्यक्त होंगे। जैसे हृदय में प्रथम से ही विराजमान निर्गुण परब्रह्म तत्त्व का साक्षात्कार श्रवण, मनन, निदिध्यासन द्वारा महावाक्य से ही होता है, वैसे ही सगुण साकार सच्चिदानन्द परब्रह्म का भी साक्षात्कार उनके चरित्रों एवं गुणगणों के श्रवण से ही होता है। चरित्र श्ररण से प्रथम चरित्रनायक भगवान का मानस रूप प्रकट होता है। उसी मानसी भगवदीय प्रतिमा का ध्यान करते-करते ही माया-यवनिका के, जिससे कि भगवान आवृत होते हैं- अपसारण से भगवान का दिव्य रूप प्रकट होता है, इस तरह शब्द से ही भगवान का प्राकट्य होता है। फिर जब भगवान के चरित्रों और भगवन्नामों से भगवान का प्राकट्य होता है, तब साक्षात भगवान के मुखचन्द्र से निर्गत वेणुगीत पीयूष के पान से भगवान का प्राकट्य होना स्वाभाविक ही है। शब्द प्रकाशक और अर्थ प्रकाश्य होता है। अतः शब्द ब्रह्म रूप में व्यक्त भगवदधर सुधा से भगवान का प्राकट्य होना स्वाभाविक है। समस्त प्रवाह अपने से संसृष्ट पदार्थ को गन्तव्य स्थल की ओर ले जाते हैं, परन्तु वेणुध्वनि का विलक्षण प्रवाह अपने में संसृष्ट तत्त्व को अपने उद्गम स्थान श्रीकृष्ण की ओर ही ले जाता है- आश्यर्च से सबका ही उधर आकर्षण होता है, फिर जब स्वयं माधव ही उस पर मोहित हो जाते हैं, तब फिर औरों का तो कहना ही क्या है? उस वेणुरव का ही वर्णन करती हुई व्रजांगनाएँ परस्पर अभिरमण करती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज