विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
साक्षान्मन्मथमन्मथः
जहाँ प्राणियों का मन प्राकृत शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध की ओर आकर्षित होता था, वहाँ अपनी दिव्यलीला शक्ति से अशब्द, अस्पर्श, अरूप, वेदान्तवेद्य सदानन्दघन भगवान ही निखिलरसामृतमूर्ति धारण कर अपने दिव्य ब्रह्मरसात्मक शब्दस्पर्श रूपरसगन्धों से हठात् प्राणियों के मन को आकर्षित करते हैं। जो भगवान भक्तों के सर्वस्व एवं ज्ञानियों के एकमात्र परमतत्त्व हैं, वही नास्तिक से नास्तिक के भी सब कुछ है, भेद इतना ही है कि वे अपने सर्वस्व में निरतिशय प्रेम करते हुए भी उन्हें पहचानते नहीं। यद्यपि यह बात असंभव सी प्रतीत होती है, परन्तु विवेचन करने में अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है। चाहे कैसा भी नास्तिक क्यों न हो वह अपने अभाव (या मरने) से घबड़ाता है। वह यही चाहता है कि मैं सदा रहूँ। जब किसी साधारण से साधारण की आत्मरक्षा और अस्तित्व के लिये व्यग्रता होती है, तब एक मनुष्य, चाहे नास्तिक ही क्यों न हो, क्या अपना अस्तित्व नहीं चाहता? क्या वह अपने अस्तित्व को मिटाना पसन्द करेगा? अब यह बात दूसरी है कि वह अपने आप कौन है, जिसका अस्तित्व चाहता है। यदि सौभाग्यवश कभी इस ओर दृष्टि जायगी, बस तभी वह समझ लेगा कि विनश्वर देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार यह सभी दृश्य हमारे हैं। हम इनसे पृथक् इनके द्रष्टा हैं, और उसी निर्विकार स्वरूप स्वात्मा का ही सदा अस्तित्व चाहते हैं। विवेचन करने से यह विदित हो जाता है, स्वप्रकाश दृक् का अस्तित्व तत् स्वरूप ही है, अत: आत्मा स्वप्रकाश कहा जाता है। इसलिये जगत को अनेकानेक वस्तुओं में चाहे जितना भी संदेह, विपर्यय या अज्ञान हो, परन्तु स्वात्मा है या नहीं, या नहीं ही है, इस प्रकार आत्मविषयक संदेहादि किसी को नहीं है। जीवनगत परमेश्वर, धर्म, कर्म सभी का अभाव साबित करने वाले शून्यवादी को भी अनिच्छया स्वात्मा का अस्तित्व मानना पड़ेगा। क्योंकि जो सबके अभाव का सिद्ध करने वाला है, अगर वह रह गया, तब तो स्वातिरिक्त ही सबका अभाव सिद्ध होगा। अपना अभाव नहीं हो सकता, सर्व निराकर्त्ता सर्व निषेध की अवधि एवं साक्षिभूत के अस्वीकार करने पर शून्य भी अप्रामाणिक होगा। अतः वही अत्यन्त अबाधित, सर्व बाध का अधिष्ठान एवं साक्षिभूत, अस्तित्व या सत्ता भगवान का रूप है, साथ ही बोध और प्रकाश के लिये प्राणी मात्र में उत्सुकता दिखाई देती है, पशु-पक्षी भी स्पर्श से आघ्राण से, किसी-न-किसी तरह से ज्ञान के प्रेमी हैं। यह ज्ञान की वान्छा प्राणी में उत्तरोत्तर बढ़ती दिखाई देती है कि हमें अब अमुक तत्त्व का ज्ञान हो, अब अमुक का ज्ञान हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज