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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीकृष्णजन्म और बालक्रीड़ा
लोभ से नवनीत चुराने के लिये घर में घुसा है। मेरे मना करने पर भी नहीं मानता, डाँटने पर यह भी बिगड़ने लगता है। माँ, तू तो जानती है कि मुझे माखन अच्छा नहीं लगता। किसी दूसरे दिन माँ को किसी और काम में व्यग्र देखकर फिर आप नवनीत चुराने पहुँच गये। माँ आकर देखती और पूछती है कि कृष्ण कहाँ है? यह सुनकर आप कत हे हैं कि “माँ, कंकण के पद्मराग-तेज से मेरा हाथ जल रहा है, इसीलिये उसे नवनीत भाण्ड में छोड़कर शीतल कर रहा हूँ।” ऐसे मनोहर कर्णरम्य वचनों को श्रवण करके माता कहती है- “आओ, वत्स आओ, देखूँ तो तेरा हाथ कैसे तप रहा है?” कृष्ण हाथ फैलाते हैं। उसका चुम्बन करके माता कहती है- “सचमुच हाथ जल रहा है, यहाँ से पद्मराग को दूर करो।” एक दिन पूर्ण-चन्द्रिका से धौत अपने मणिमय प्रांगण में व्रज-देवियों के साथ गोष्ठी करती र्हुए व्रजरानी विराजमान थी। वहाँ श्रीकृष्ण ने चन्द्रमा को देखा और पीछे से आकर शिर से खिसके हुए पट पर माता की स्खलित वेणी को पकड़कर कहने लगे कि “माँ, मैं इनको लूँगा।” बालक को गद्गद-कण्ठ देखकर माँ स्नेहार्द्रचित हो गयी और अपने पास बैठी हुई सखियों पर दृष्टि डालकर कहने लगी कि “तुम्हीं पूछो, यह क्या माँगता है?” विनय, प्रणय, स्नेह सहित वे पूछती हैं, “बेटा, क्या क्षीर चाहते हो?” कृष्ण ‘नहीं’। तब फिर क्या ‘सुन्दर दधि?’ ‘नहीं।’ ‘फिर क्या कूर्चिका?’ “कृष्ण नहीं नहीं।” ‘तब क्या आमिक्षा?’ ‘अरे नहीं’। ‘तब बेटा, क्या नवनीत लोगे?’ ‘उँहँ।’ ‘तब फिर क्यों मचलते हो और माँ को कुपित करते हो?’ श्रीकृष्ण अँगुली उठाकर चन्द्र को दिखलाते हुए कहते हैं कि “मैं तो वह नवनीत खण्ड लूँगा।”“कि क्षीरं न किमुत्तमं दधि न ना, किं कूर्चिका वा न ना- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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