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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवान का मंगलमय स्वरूप
भगवान के दिव्य मंगलमय विग्रह की गम्भीरता अपार है। किसी में उसे ग्रहण करने की सामर्थ्य नहीं। यह घनश्याम श्याम घन से विलक्षण घनश्याम हैं। श्याम घन में जो विद्युत् होती है, ऐसी अनन्तकोटि विद्युतों की सम्मिलित द्युति को तिरस्कृत करने वाली इनकी कौशेयाम्बरदीप्ति है। श्याम घन जीवन (जल) दाता है तो मनमोहन भी जीवनदाता है। श्याम घन जल बरसता है परन्तु घनश्याम प्रेमामृत आनन्दामृत की वर्षा करते हैं। व्रजांगनाओं को हृच्छयाग्नि से दह्यमान होने के कारण श्यामघन की आवश्यकता थी। वेणुनिनाद से प्रेम-बीज बोया गया, पुलकावलिरूप से वह अंकुरित हुआ पर वह हृच्छयाग्नि से जलने लगा, अश्रुधाराएँ बहकर उसे सिंचन करने लगीं पर उस उष्ण जलधारा से हृदय को वह शान्ति कहाँ से मिलती? इसलिये उन्होंने जीवन-प्राप्ति के लिये इन नूतन नील जलधर श्यामघन की शरण ली। भगवदीय दिव्य मंगलमय विग्रह के सौन्दर्यादि गुणों की महिमा कैसे समझी जाय? दिव्यातिदिव्य प्राकृत पदार्थों को असंख्यगुणोपेत करके अपना काम करते-करते चित्त शुद्ध होकर भगवदीय अनुकम्पा से वास्तविक स्वरूप का हृदय में प्राकट्य होता है। बालसूर्य की सुकोमल किरणों से संस्पृष्ट अतसी-पुष्प की श्यामता दूर से दमदमाती हुई बड़ी ही मनोहर लगती है। इस मनोहर श्यामता की शतकोटिगुणित कल्पना करो तो कुछ वैसी श्यामता भगवान के दिव्य मंगलमय विग्रह की है। सायंकाल में भी अतसी-पुष्प की दीप्तियुक्त नीलिमा बड़ी मनोहर होती है। यह मनोहारिता शतकोटिगुणित होकर भगवान की श्याम मनोहारिता की कुछ कल्पना करा सकती है। अथवा भ्रमर की श्यामता लीजिये। भ्रमर दूर से काला दीखता है, पर वह काला नहीं, उसमें बड़ी ही सुन्दर नीलिमा है। ऐसी मनोहर नीलिमा अन्य किसी प्राकृत पदार्थ में नहीं। व्रजांगनाओं ने भगवान की नीलिमा को मधुप की नीलिमा से ही उपमित किया है और कहा है- हे मधुप, तुम भी मधुपति की तरह बड़े कपटी हो। भ्रमर के पीले पंख भी भगवान के पीत पट का स्मरण दिलाते हैं और उसका मधुमय गुंजार भगवान के मधुमय वेणुनिनाद का या उनके मीठे-मीठे वचनामृतों का स्मरण दिलाता है। भ्रमर जैसे जब तक रस है तभी तक ही पुष्पों से स्नेह रखता है, नहीं तो भाग जाता है, वैसे ही भगवान भी रस के ग्राहक हैं, रस नहीं तो भगवान से भेंट कहाँ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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