भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
प्रेमतत्त्व
इस तरह औपाधिक प्रेम सापेक्ष, सातिशय होने पर भी निरुपाधिक प्रेम भेद-निरपेक्ष, स्वप्रकाश, सर्वान्तरात्मा भगवान् का स्वरूप ही है और वह स्वतःसिद्ध है। केवल उसके प्राकट्य के लिये ही प्रयत्न की अपेक्षा होती है। जैसे ब्रह्माकार वृत्ति की कोमलता, दृढ़ता से नित्यसिद्ध परमात्मस्वरूप-ज्ञान में भी कोमलता और दृढ़ता का व्यवहार होता है, वैसे ही है। प्रेम में भी कोमलता, दृढ़ता से नित्य सिद्ध परमात्मस्वरूप-ज्ञान में भी कोमलता और दृढ़ता का व्यवहार होता है। प्रेम में भी कोमलता, दृढ़ता और उत्पत्ति का उपचार ही है। आमाम्र (कच्चा आम) पक्वाम्र का हेतु समझा जाता है, वैसे ही साधनावस्था का प्रेम साध्यावस्था के प्रेम का साधन माना जाता है। उसमें रक्षा की भी बड़ी अपेक्षा समझी जाती है। भावुकों ने कहा है कि जैसे दीप बुझ जाता है, वैसे प्रेम के बुझ जाने का भी भय रहता है। जैसा कि किसी की उक्ति है- अर्थात दोनों रसिकों के हृदय में रहने वाला प्रेम एक दीप है, वही हृदय-भवन का प्रकाशन करता है और निश्चल होकर स्वयं देदीप्यमान होता है। यदि वह मुखरूप द्वार से बाहर किया गया, तो या तो बुझ जाता है अथवा उसमें लघुता आ जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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