भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
संकल्पबल
निर्विकल्प बोध ही जब सविकल्प हो जाता है, तब वही संकल्प या विचार कहलाने लगता है। विचार में से विकल्प के निकलते ही वह निर्विकल्प बोधरूप परमात्मा ही बन जाता है। इस तरह सविकल्प बोध विचार या संकल्प के भीतर सम्पूर्ण विश्व रहता है और वह विचार अखण्ड बोध से कवलित रहता है। जैसे दर्पण के भीतर प्रतिबिम्ब दर्पण से भिन्न नहीं होता है, वैसे ही संकल्प और संकल्पित जगत अखण्डबोधरूप दर्पण के भीतर ही रहता है, उससे भिन्न होकर वह कभी भी नहीं रहता। समस्त प्रपंच को संकल्प में लीन करने और संकल्प को अखण्ड बोध में लीन कर लेने पर शुद्ध तत्त्व का साक्षात्कार अपने आप हो जाता है। महावाक्य से अनिर्वचनीय माया मात्र के हटाने की आवश्यकता रहती है। शुद्ध संकल्प से दुर्लभ से दुर्लभ चीज मिल सकती है। बुरे संकल्पों से उनकी शक्ति घटती है, अच्छे संकल्पों से उनकी महिमा बढ़ती है। किसी का अनिष्ट चिन्तन करने से इतनी उसकी हानि नहीं होती, जितनी चिन्तन करने वाले की हानि होती है। किसी भी कर्म में अगर समष्टिहित की भावना रहती है, तो वह महत्तव का हो जाता है। समष्टि अहित की भावना से बड़ा-से-बड़ा भी यज्ञ, तप, दान आदि निवीर्य हो जाता है। इसीलिये धर्मसंघ का सिद्धान्त है कि समष्टिहित की दृष्टि से शुभ संकल्प में प्रवृत्त हो जाना चाहिये। ‘धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो’’- इन संकल्पों का विस्तार होना चाहिये। विशिष्टशक्ति सम्पन्न महात्मा या ऋषि-महर्षि तो अकेले ही अपने ही अपने दृढ़ संकल्प से विश्व का कल्याण कर सकता है, दुनिया की भावना में परिवर्तन कर सकता है, परन्तु आज वैसे लोगों की संख्या कम उपलब्ध होती है। अतः सामूहिक संकल्प काम देगा। अतः यदि चालीस-पचास लाख भी आस्तिक धर्म के जय की भावना करें तो वैसा होने में विलम्ब नहीं हो सकता। |
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