भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
सबसे सगे भगवान
जब जीवात्मा अपने असली सम्बन्धी भगवान को भूलकर नकली सम्बन्धियों के मायाजाल में फँस जाता है, तभी माया उसे दुःखमहोदधि में डालकर उसके मस्तिष्क को ठिकाने लाने का प्रयत्न करती है। जब प्राणी यहाँ तक उन्मादी बन बैठता है कि ईश्वर और धर्म को अनावश्यक समझने लगता है। भगवान के ही बनाये दिल-दिमाग से अपनी वैज्ञानिक चमत्कृतियों पर मुग्ध होकर कहता है कि “वैज्ञानिक दृष्टि से पार्थिवादि प्रपंचों या प्रकृति से ही सम्पूर्ण काम सिद्ध हो जाते हैं; ईश्वर और धर्म तो केवल झगड़े की जड़ है या भीरु प्राणियों के मन का एक वहम है” तब कहीं व्यापक भूकम्पों द्वारा, कहीं महामारियों द्वारा, कहीं प्राकृतिक विकट तूफानों या विश्वव्यापी नरसंहारों द्वारा प्रणियों को परमात्मा का स्मरण दिलाया जाता है। फिर भी जैसे कल्याणमयी, करुणामयी, पुत्रवत्सला, अम्बा अपने शिशुओं का कभी भी अहित नहीं चाहती, वैसे ही प्रभु भी कभी भी प्राणियों का अहित नहीं चाहते। तभी तो वे निरीश्वरवादी प्राणियों का भी कल्याण चाहते हैं। उन पर भी कुपित नहीं होते। इसी आशा पर तो ब्रह्मा ने कहा था कि “हे नाथ! यद्यपि मैंने आपकी कौतुकपूर्ण क्रीड़ा में विघ्न डाला, आपके बछड़ों और ग्वालबालों का हरण करके बड़ा ही अपराध किया, तथापि प्रभो, जैसे अम्बा बछड़ों और ग्वालबालों का हरण करके बड़ा ही अपराध किया, तथापि प्रभो, जैसे अम्बा गर्भगत शिशु के पैर चलाने को अपराध नहीं मानती, वैसे ही आप भी हमारे ऐसे कर्मों पर ध्यान न दें। प्रभो, सम्पूर्ण विश्व ही आपके उदर में है फिर गर्भगत शिशु के समान ही प्राणियों के अपराधों को क्षमा करना क्या उचित नहीं है? प्रभु ने क्षमा भी कर दिया। उन्होंने सरल से सरल उपाय शास्त्रों द्वारा बता रखा है। पत्र, पुष्प, फल, जल, नमस्कार ही से प्रभु प्रसन्न हो सकते हैं। कुछ भी न हो तो केवल मन से ही पूजन, स्मरण और वह भी न बने तो भाव, कुभाव जिस किसी तरह भगवान के नाम जप से ही परम गति प्राप्त हो सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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