भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भक्तिरसामृतास्वादन
वही निरतिशय बृहत् होने से ब्रह्म, आत्माओं को भी आत्मा होने से परमात्मा, अचिन्त्य, अनन्तभगों (समग्र ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान, वैराग्य और मोक्ष) एवं कल्याण गुणगणों द्वारा सेवित होने से भगवान कहा जाता है-
किन्हीं लोगों ने ब्रह्म और भगवान में भेद मानकर इस श्लोक का व्याख्यान किया है। उनका कहना है कि ब्रह्म ज्योति और भगवान ज्योतिष्मान् हैं। वे ज्योतिरूप होने से ब्रह्म की अमूर्तता, प्राकृत गुणगणरहित होने से निर्विशेषता तथा ज्योतिष्मान् होने से भगवान श्रीकृष्ण की मूर्तता, अप्राकृत अनन्त कल्याणगुणगणाकर होने से सविशेषता मानते हैं। परन्तु उनका कथन ठीक नहीं, क्योंकि लक्षण भेद से लक्ष्य भेद और लक्षणैक्य से लक्ष्यैक्य होता है। उपर्युक्त श्लोक में तत्त्वलक्षण एक ही प्रकार का कहा गया है- “तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम्”। इसीलिये ब्रह्म, परमात्मा और भगवान में कुछ भी भेद नहीं है। किन्हीं लोगों ने भगवान श्रीकृष्ण को आदित्यस्थानीय और ब्रह्म को किरणस्वरूप माना है। किन्तु उनका भी मन्तव्य भावमात्र मूलक है, तात्त्विक नहीं। तात्त्विक मानने पर भगवान औपनिषद् न ठहरेंगे। ‘श्रीमद्भागवत’ में भगवान श्रीकृष्ण को पूर्ण ब्रह्म कहा गया है- “यन्मित्रं परमानंद पूर्ण ब्रह्म सनातनम्।” “अथातौ ब्रह्मजिज्ञासा” इत्यादि चतुर्लक्षणी उत्तर मीमांसा में ब्रह्म का ही विचार बतलाया गया है, अतः ब्रह्म ही औपनिषद् है। यदि ज्योति और ज्योतिष्मान् का भेद माना जाय, तब तो स्वगत भेद सुस्थित हो जाता है, फिर अनुपचरित अद्वयता नहीं कही जा सकती। यदि भेद न माना जाय, तब तो धर्म-धर्मिभाव नहीं बन सकता। विरुद्ध होने के कारण स्वाभाविक भेदाभेद कहा नहीं जा सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज