भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भक्तिरसामृतास्वादन
“यत् साक्षादपरोक्षाद् ब्रह्म” इस श्रुति ने ब्रह्म की अवेद्यता से ही अपरोक्षता बतलायी है जो कि प्रत्यगात्मा से भिन्न, तटस्थ ब्रह्म की किसी तरह नहीं बन सकती। आत्मा से भिन्न पदार्थं की सिद्धि प्रमाण के अधीन ही होती है, स्वतः भासमान स्वारसिक अनतिशय प्रेमस्वरूप ही भगवान है इसीलिये श्रीशुक्राचार्य ने भगवान श्रीकृष्ण को सबका अन्तरात्मा बतलाया है-
इसीलिये ब्रह्मविद्वरिष्ठों के भी चित्त में हठात् उनकी स्फूर्ति होती है-
प्रकृत ग्रन्थकार श्रीमधुसूदन सरस्वती के भी निम्नलिखित वचन हैं-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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