भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भक्तिरसामृतास्वादन
भक्ति रसामृतसिन्धु, उज्ज्वलनीलमणि आदि में जो विषय विस्तार से कहे गये हैं, वे यहाँ सूत्रभूत कारिकाओं से रहे गये हैं। विशेषतया वेदान्त, सांख्य, मीमांसादिशास्त्र एवं शास्त्राविरोधी युक्तियों द्वारा सभी विषयों का वर्णन किया गया है। अद्वैत-सिद्धिकार श्रीमधुसूदन सरस्वती महाराज की सिद्धान्ता विरोधिनी स्वारसिकी भक्ति थी, जैसा कि उन्होंने स्वयं ही ‘गूढार्थदीपिकासंग्रह’ में कहा है कि अद्वेष्टृत्व आदि गुण जैसे ज्ञानी के स्वभावसिद्ध होते हैं वैसे ही भगवद्भजन करना भी ज्ञानी का स्वभाव है- “अद्वेष्ट्टत्वादिवत्तेषां स्वभावो भजनं हरेः।” साधन अभ्यास और परिपाकावस्था के भेद से “तस्यैवाहं” मैं उसी का हूँ, “ममैवासौ” वह मेरा ही है, “सोऽहं” में वही हूँ, तीन तरह के भाव होते हैं। तीसरे भाव के “कृष्णोऽहं पश्यत गतिम्”, “अहंब्रह्म परंधाम”, “मधुरिपुरहमिति भावनशीला” इत्यादि उदाहरण हैं। “मामेकं शरणं व्रज” इत्यादि गीता के उपसंहारात्मक श्लोक का तात्पर्य भी अन्तिम भावना ही है। ‘एकं’ एक अद्वितीय त्रिविधभेदशून्य “मां” मुझ प्रत्यक्चैतन्याभिन्न परब्रह्म को “शरणं” घटाकाश का महाकाश के समान, तरंग का जलराशि के समान आश्रय अथवा रक्षक निश्चित रूप से जानो। “नैनमविदितो देवो भुनक्ति” इस श्रुति के अनुसार प्रत्यगभिन्नता रूप से विदित ब्रह्म ही अविद्या तत्कार्यात्मक प्रपंच का अपनोदन करता है, इसीलिये वह रक्षक है। परब्रह्म परमात्मा से अभिन्न होने पर ही प्रत्यक् आत्मा की पूर्णता एवं प्रत्यगात्मा से अभिन्न होने से परब्रह्म की अपरोक्षता अनौपाधिक अनतिशय पर प्रेमास्पदता सिद्ध होती है। यदि प्रत्यगात्मा से तटस्थ परमात्मा ठहरा तो उपयुक्त बातें बन नहीं सकतीं। “आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति” यह श्रुति प्रत्यगात्मा के शेष रूप से ही सबकी प्रेमास्पदता बतलाती है। अपने कल्याण के लिये भगवान का भजन कड़वी गुडुची पान के समान ही ठहरेगा, क्योंकि स्वास्थ्य के लिये कड़वी गुडुची भी पायी जाती है। फिर भगवान में सातिशय ही प्रेम रहेगा निरतिशय नहीं, जब प्रत्यागात्मा का स्वरूप भगवान को माना जाता है, तभी भगवान की निरुपाधिक परप्रेमास्पदत्ता बन सकती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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