भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
संकल्पबल
विचारों से समय असावधान रहता है। विचार से क्या होता है? बुरा कर्म न करुँगा, उसी के त्याग की मैंने प्रतिज्ञा की है, इस तरह अपने को धोखा देकर विचार के रस का अनुभव करता है वह कभी भी व्यसन से आत्मत्राण नहीं कर सकता है। इसीलिये बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह किसी तरह बुरे विचारों को हटाये। एकाएक मन का संकल्प-विकल्प से रहित होना असंभव है, अतः तदर्थ प्रयत्न व्यर्थ है। जैसे भाद्रपद में सिन्ध, शतद्रु, गंगा आदि नदियों का वेग रोककर उनके उद्गम स्थान में लौटकर उन्हें सुखा देना असंभव है, परन्तु उनकी धाराओं को मुँह फेरकर उन्हें छिन्न-भिन्न कर सुखाना संभव है इसी तरह मन के संकल्पों को एकदम रोक देना असंभव है, परन्तु बुरे विचारों को रोककर, सात्त्विक विचारों की धाराओं को चलाकर, सात्त्विक वृत्तियों से तामस वृत्तियों को काटकर, शनैः-शनैः अन्तरंग सुक्ष्म सात्त्विक वृत्तियों से स्थूल बहिरंग सात्त्विक वृत्तियों को भी काटकर निर्वृत्तिकता सम्पादन की जा सकती है। वैदिक शास्त्रों में बालकों को विचारों को सँभालने का बड़ा ध्यान रखा गया है। स्त्रियों और बालको के निर्मल कोमल पवित्र अन्तःकरणों में पहले से ही जो बातें अंकित हो जाती हैं, वे ही सदा काम आती हैं। चित्त या अन्तःकरण यदि अद्भुत लाक्षा (लाख) के समान कठोर होता है, तो उसमें किसी भी आचरण या उपदेश का प्रभाव नहीं पड़ता, और जब वह द्रुत लाक्षा के समान कोमल रहता है तो लाक्षा पर मुहर के अक्षरों के समान निर्मल कोमल पवित्र अन्तःकरण पर उत्तम आचरणों और उपदेशों से प्रभावित होता है। पहले से ही बुरे संगों और ग्रन्थों से बालको के हृदय में कूड़ा-करकट का भरा जाना अत्यन्त हानिकारक है। इसीलिये अच्छे पुरुषों का संग तथा सच्छास्त्रों के अभ्यास में ही उन्हें लगाना अच्छा है। |
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