भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
अत: अपरिच्छिन्न सुख वही है जहाँ द्रष्टा, दर्शन, दृश्य को समाप्ति है। वही भूमा सुख है। ‘सत्र नान्योऽन्यत्पश्यिति नान्योऽन्यच्छृणोति स भूमा, यो वै भूमा तत्सुखम्, यदल्पं तन्मर्त्यम् नाल्पे सुखमस्ति।।” अर्थात जहाँ अन्य-अन्य को देखता-सुनता है वहाँ अल्प ही सुख है। इस दृष्टि से अनन्त, अखण्ड भूमा ब्रह्म ही परम सुख है, उससे अधिक सुख की कल्पना सर्वथा अशास्त्रीय है। यह अनन्त अखण्ड भूमा ब्रह्म ही सगुण, साकार, सच्चिदानन्द ब्रह्म भी है। यही अपनी अचिन्त्य दिव्य लीलाशक्ति से शिव, विष्णु, उमा, गणपति, भास्कररूप से भी उपास्य होता है। जैसे विष्णु की ही राम, कृष्ण, नृसिंह आदि रूप से उपासना होती है, वैसे ही एक ही परमतत्त्व की शिव, विष्णु आदि रूप से उपासना होती है। “व्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुण विगत विनोद।” परमतत्त्व ही अपनी अचिन्त्य दिव्य लीलाशक्ति से सगुण, साकार, सच्चिदानन्दघन रूप में व्यक्त होते हैं, उनके किसी रूप में उत्कट उत्कण्ठा, प्रीति ही भक्ति है। भक्ति और ज्ञान के उत्कर्ष-अपकर्ष का चिन्तन व्यर्थ है। भक्ति महारानी के ही शुभाशीर्वाद से विवेक नृप से उपनिषद् में प्रबोध चन्द्र का उदय होता है। विवेक का मोह के साथ अनादि काल से युद्ध चला आ रहा है। मोह के पक्ष में काम, क्रोध, अहंकार, लोभ, दम्भ प्रभृत्ति आदि अनेक भट है। विवेक के पक्ष में वैराग्य, विचार, शम, दम, क्षमा, दया, श्रद्धा, निवृत्ति आदि अनेक भट हैं। दलबल सहित मोह पर विजय प्राप्त करके प्रबोध सहित परम पुरुष भगवान का अंशभूत जीवात्मा कृतकृत्य होकर श्रीभक्ति माता के चरणों में जाकर प्रणाम करता है। श्रीभक्ति भगवती उसे आशीर्वाद देती हैं और कहती हैं- “वत्स! मैं तो चिरकाल से इसी चिन्ता में थी कि किस तरह प्रबोधचन्द्रसहित विवेक विजयी होकर स्वभावतः शुद्ध बुद्ध-मुक्त-स्वभाव परम पुरुष को स्वस्वरूपस्थ करें। वह आज मेरा मनोरथ पूरा हुआ। वत्स! मैं आशीर्वाद देती हूँ।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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