भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
कर्मकाण्ड और उपासना काण्ड दो ही काण्ड वेदों में है। चाहे पृथक् ज्ञानकाण्ड माना भी जाय तो भी वह कर्म और उपासना दोनों का साधन है। कर्म के ज्ञान से ही अनुष्ठान होगा, उपास्यज्ञान से ही उसकी उपासना होती है। इस पक्ष में निर्गुण निराकार ब्रह्म सर्वथा अमान्य ही है और उस पक्ष में संसार या बन्ध सत्य ही है। अतः ज्ञान से उसका मिटना असम्भव है। इसलिये भक्ति, प्रार्थना आदि से ही बन्धन का छूटना और विशिष्ट आनन्द का लाभी सम्भव है। इस पक्ष में ज्ञान से भक्ति का अत्यन्त-उत्कर्ष स्पष्ट ही है, परन्तु जो कर्मफल होने से मुक्ति की अनित्यता से भयभीत होते हैं और समझते हैं कि यदि बन्ध और संसार सत्य है तो उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति असम्भव है, वे भगवान को सगुण-साकार की तरह निर्गुण-निराकार भी मानते हैं और कर्म, उपासना के समान ही ज्ञानकाण्ड का भी महत्त्व मानते हैं, उनके मत में सुतरां उपर्युक्त मत अमान्य है। फिर भी कुछ महानुभाव कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड तीनों को पृथक मानते हुए भी भक्ति को ज्ञान से उत्कृष्ट कहते हैं, तब भी उनका ज्ञान प्राप्त ब्रह्म, सगुण साकार परब्रह्म से निम्न कोटि का है। ज्ञानप्रधान सच्चिदानन्द ब्रह्म, ज्ञानप्राप्य है, आनन्दप्रधान ब्रह्म, भक्तिप्राप्य है। वेदानतवेद्य ब्रह्म आतप के समान है, भक्तिप्राप्य भगवान सूर्य के समान है। सुतरां इस मत में भी ज्ञान से भक्ति का उत्कर्ष है। इन मतों में भी का ‘सा परानुरक्तिरीश्वरे’ ईश्वर में परमानुराग ही भक्ति है इत्यादि लक्षण मान्य है। वह भक्ति ‘मर्यादा’ और ‘पुष्टि’ किंवा ‘वैधी’ और ‘रागानुरागा’ भेद से दो प्रकार की है। स्वतः अप्राप्त विधिगम्य भगवत्सेवन मर्यादा या वैधी है, भगवत्कृपा प्राप्त कामिन्यादिप्रीतिवत् रागवशात् भगवत्सेवन पुष्टि या रागानुरागा है। यह भक्ति पर-प्रेमरूपा है, स्वतःसिद्धा है, यह भगवान् की परमान्तरंगा शक्तिरूपा है। यह हेतुफलभावरहित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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