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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवदवतार का प्रयोजन
जो जारबुद्धि अन्यत्र घोर नरक का मूल है, वही भगवान में परम कल्याण का मूल हो जाती है। जैसे सुवर्णमुद्रिका और दिव्य रत्न का सम्बन्ध बनाने के लिये लाख का भी मूल्य बढ़ जाता है, वैसे ही भावुक और भगवान का सम्बन्ध सुस्थिर करने के लिये जारबुद्धि भी बहुमूल्य हो जाती है। अन्यत्र ‘जार’ का अर्थ “जयति सर्वान् गुणान् धर्मस्वर्गा-पवर्गान् जार” इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह होता है कि सब गुणों को या धर्म‚ स्वर्ग‚ अपवर्ग आदि को नष्ट करने वाला। परन्तु यहाँ ʺजरयति अविद्या तत्कार्यात्मकं बन्धमविद्याग्रन्थिं कामान्वा इति जारःʺ इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह अर्थ होता है कि जो अविद्याग्रन्थि को जला दे, अविद्या तत्कार्यात्मक बन्ध को नष्ट कर दे अथवा समस्त काम वासनाओं को जलाकर नष्ट करने वाला परमात्मा ही जार है। इस तरह साधारण से साधारण, उल्वण से उल्वण प्राणियों की सद्गति के लिये ही श्रीभगवान का अवतार है। कुछ अभिज्ञों का कहना है कि भगवान अपने ही सौशील्य, औदार्य, वात्सल्य आदि गुणगणों की सफलता के लिये इस मर्त्यलोक में अवतीर्ण होते हैं। यदि ऐसा न हो, तो उनके पतितपावनत्वादि गुणगण व्यर्थ और वन्ध्य हो जायँगे। अपनी अनन्तता, अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड नायकता को भुलाकर बन्दरों के साथ मिल-जुलकर आत्मीयता का व्यवहार करना यही अद्भुत सौशील्य है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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