भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निराकार से साकार
'अजायमानो बहुधा विजायते' इस श्रुति से भी यही सिद्ध किया गया है। “आनन्दरूपममृतं यद्विभाति”, “आदित्यवर्ण तमसः परस्तात्”, “हिरण्यकेशः हिरण्यश्मश्रुः आप्रणखाग्रात् सुवर्णः” इत्यादि श्रुतियों से भगवान का सगुण स्वरूप मालूम पड़ता है। “यो वेत्ति भौतिकं देहं कृष्णस्य परमात्मनः। मुखं तस्यावलोक्याऽपि सचैलं स्नानमाचरेत्।। स सर्वस्माद्वहिष्कार्यः श्रौतस्मार्त्तविधानतः।” “न भूतसंघसंस्थानो देहोऽस्य परमात्मनः।” “अस्यापि देववपुषो मदनुग्रहस्य स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि” इत्यादि ‘भारत’, ‘भागवत’ आदि के वचनों से भी भगवान के स्वरूप को अभौतिक कहा गया है, भौतिक मानने वाले को पात की बतलाया गया है। मधुसूदन जी कहते हैं कि सर्वज्ञ ईश्वर को धर्माधर्म ने होने से उनका जन्म नहीं बन सकता। नये देहेन्द्रियादि का ग्रहण जन्म और पूर्वगृहीत का वियोग मृत्यु कहलाता है। यह दोनों ही बातें अज, अव्यय परमात्मा में सम्भव नहीं है। यदि ईश्वर का शरीर स्थूल भूतकार्य हो या व्यष्टिरूप हो, तो जाग्रदवस्थाभिमानी जीवों के तुल्य ही ईश्वर भी होगा। समष्टिरूप हो तो विराट जीवरूप होगा। यदि सूक्ष्मभूत का कार्य है, या व्यष्टिरूप है, तो स्वप्नावस्थाभिमानी होगा और यदि समष्टिरूप हो, तो हिरण्यगर्भ है। परमेश्वर का भौतिक स्वरूप जीवाविष्ट हो हो नहीं सकता। कुछ लोग कहते हैं कि जीवाविष्ट शरीर में ही ‘भूतावेशन्याय’ से ईश्वर का प्रवेश होता है। परन्तु, यह ठीक नहीं, क्योंकि यदि इस शरीर में जीव को ही सुख-दुःखादि भोग होता है, ईश्वर को नहीं, तब तो अन्तर्यामीरूप से सर्वत्र ही परमेश्वर का प्रवेश सिद्ध है, फिर ऐसा शरीर-विशेष स्वीकार करना व्यर्थ ही है। यदि उस शरीर में जीव का भोग नहीं बनता, तब तो उसे जीव शरीर भी नहीं कहा जा सकता, अतः ईश्वर का भौतिक शरीर कथमपि नहीं बन सकता। इन्हीं बातों का निराकरण करते हुए भगवान कहते हैं कि ‘मैं अज और अव्यय होता हुआ भी, ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्त समस्त प्राणियों का ईश्वर होकर भी, अपनी विचित्र शक्तिवाली अघटितघटनापटीयसी उपाधिभूत माया को अपने चिदाभास से वशीभूत करके माया के परिणाम विशेषों से ही देहवान् के समान उत्पन्न-सा प्रतीत होता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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