भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
गणपति-तत्त्व
‘स्कन्द’ तथा ‘मौद्गल पुराण’ में विनायक-माहात्म्य-विषयक एक ऐसी गाथा है- किसी समय अभिनन्दन राजा ने इन्द्रभाग-शून्य एक यज्ञ आरम्भ किया। यह जानकर इन्द्र कुपित हुआ। अपने काल को बुलाकर यज्ञ-भंग की आज्ञा दी। कालपुरुष यज्ञ को भंग करने के लिये विघ्नासुर रूप में प्रादुर्भूत हुआ। जन्ममृत्युमय जगत काल के अधीन है। काल तीनों लोकों का भ्रमण करता है। ब्रह्मज्ञानी पुरुष काल को जीतकर अमृतमय हो जाता है। ब्रह्मज्ञान का साधन वैदिक स्मार्त्त सत्कर्म है। “स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।” सत्कर्म से विशुद्धान्तःकरण पुरुष को भगवत्तत्त्व-साक्षात्कार होता है और उससे ही काल की पराजय होती है। यह जानकर काल उस सत्कर्म के नाश के लिये विघ्नरूप होकर प्रादुर्भूत हुआ। सत्कर्महीन जगत सदा ही काल के अधीन रहता है। इसीलिये कालस्वरूप विघ्नासुर अभिनन्दन राजा को मारकर जहाँ-तहाँ दृश्यादृश्य रूप से सत्कर्म का खण्डन करता था, उस समय वशिष्ठादि भ्रान्त हो ब्रह्मा की शरण गये और उनकी आज्ञा से भगवान गणपति की स्तुति की, क्योंकि गणपति को छोड़कर किसी भी देवता में कालनाश-सामर्थ्य नहीं है। गणेश जी असाधारण विघ्नविनाश-कत्त्व गुण से सम्पन्न हैं, यह बात श्रुति, स्मृति, शिष्टाचार तद्वाक्य एवं श्रुतार्थापत्ति से अवगत है। श्रीगणेश जी से विघ्नासुर पराजित होकर उनकी शरण में गया और उनका आज्ञावशवर्ती हुआ। अत: गणेश जी का नाम विघ्नराज भी है। उसी समय से गणेश पूजन-स्मरण रहित जो भी सत्कर्म हो, उसमें विघ्न का प्रादुर्भाव अवश्य होता है। इसी नियम को विघ्न भगवान के आश्रित रहने लगा। विघ्न भी कालरूप होने से भगवत्स्वरूप है। “विशेषेण जगत्सामर्थ्य हन्तीति विघ्नः।” ब्रह्मादिकों में भी जगत्सर्जनादि-सामर्थ्य को हनन करने वाले को विघ्न कहते हैं, अर्थात ब्रह्मादि समस्त कार्य ब्रह्म-विघ्न-पराभूत होने के कारण स्वेच्छाचारी नहीं हो सकते। किन्तु गणेश के अनुग्रह से ही विघ्नविरहित होकर कार्य करणक्षम होते हैं। विघ्न और विनायक ये दोनों ही भगवान होने के कारण स्तुत्य हैं। अत: “भगवन्तौ विघ्नविनायकौ प्रीयेताम्” ऐसा पुण्यावहवाचन में लिखा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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