भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
पुरुषरूपिणी
इत्यादि वचनों से अनन्त शक्तियों का वर्णन है और शक्तिमान दोनों का ही अभेद्य सम्बन्ध रहता है। भक्त कहते हैं कि देवी महिमा अनन्त है, फिर भी जो वर्णन समाप्त किया जाता है, वह गुणों के समाप्त हो जाने से नहीं, किन्तु असामर्थ्य या थकावट से ही स्तुति समाप्त की जाती है।
प्राणियों की अभीष्ठ वस्तुओं में रूप, जय, यश और शत्रुपराभव अभीष्ट होती है, यह सब निश्छल भाव से माता से ही माँगा जाता है- माता ही देती है- ‘‘रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि।’’ इसीलिये सुरासुर सभी अपने मुकुट-किरीट के रत्नों से माता के चरणपीठ का वन्दन करते हैं- ‘‘सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके।’’ कृष्ण ने भी भक्ति पूर्वक उन्हीं की स्तुति की- ‘‘कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या तथाम्बिके।’’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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