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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
अब विकल्प के अभाव-पक्ष पर दूसरी व्रजांगना की वकालत सुनिये। वह कहती है- ‘अवश्य ही वृक्षों, प्यारे श्यामसुन्दर ने तुम्हारे प्रणाम का अभिनन्दन नहीं किया, यदि किया होता तो तुम इतने खिन्न न होते, हमारे प्रश्नों का उत्तर देते, पर तुम बोल ही नहीं रहे हो, इसी से स्पष्ट है कि उन्होंने तुम्हारे प्रणाम का उत्तर नहीं दिया। कारण स्पष्ट है, वे अपनी प्राणेश्वरी के कण्ठ में वामहस्त को विन्यस्त करके ‘गृहीतपद्मः’ हैं। ‘गृहीतपद्मः’ के मध्यम पद ‘मुख’ का लोप हो गया है, विग्रह वाक्य में वह ‘गृहीतमुखपद्मः’ ऐसा है, जिसका अर्थ है- दक्षिण हस्तकमल से कपोल स्पर्श किये हैं। तात्पर्य यह कि ये प्रेम में, श्रीप्रिया की सेवा में इतने तल्लीन हैं कि उन्हें पता ही नहीं कि उन्हें कोई प्रणाम कर रहा है। फिर ये रामानुजः हैं, हलमूसलधारी के भाई हैं, कठोर किसी का भी अभिनन्दन नहीं करते। अथवा ‘रामानुजः’ माने ‘रामानुगः’ रामा के पीछे लगे हैं। वैसी स्थिति में कौन तुम्हारा अभिनन्दन करेगा? हैं तो वे सर्वज्ञ-शिरोमणि, इसमें सन्देह नहीं, पर श्रीरासेश्वरी के अंगसंग से प्रमत्त हैं- ‘तद्यथा प्रियया भार्यया सम्परिष्वक्तो न किंचन बाह्यं वेद नाऽऽन्तरम्।’ जैसे अति प्रेयसी के परिष्वंग से प्रेमामृत समुद्र में निमग्न होकर प्राणी सब कुछ भूल जाता है, वैसे ही प्राणाधिका श्रीराधिका के सम्पर्क में रसिकशेखर श्रीश्यामसुन्दर की स्थिति हो रही है। फिर उनको कोई याद दिलाने वाला होता तो भी बात बन जाती, पर वहाँ तो सभी उन्मत्त हैं। ‘तुलसीका’ को ही लो, वह स्वयं ‘अलिकुलैर्मदान्धैरन्वीयमाना’ है। तुलसी स्वयं ही सकलमाला-मानमर्दिनी होने से अतिप्रमत्त, फिर उसके अनुरागी भ्रमर तो और भी उन्मदान्ध। ऐसी स्थिति में याद कौन दिलाये कि महाराज, ये वृक्ष आपको प्रणाम कर रहे हैं, इनका अभिनन्दन कीजिये। तुलसिका, भ्रमर, कमल, प्रिया जी और स्वयं सभी तो एक से एक बढ़कर हैं। वहाँ मतवालों का जमघट है। अतः वृक्षों के प्रणाम का उन्होंने अभिनन्दन किया ही नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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