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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
श्रीरुक्मिणी, सत्यभामा आदि को श्रीकृष्ण दुरवाप कब हुए? यह तो व्रजांगनाजन आदि की ही दशा रही, रंक को निधि की तरह उन्हें ही श्रीश्यामसुन्दर दुष्प्राप रहे और जँचे। पारावारविहीन लज्जा, गुरुक्तिविषवर्षण, श्रीश्यामसुन्दर के दर्शन भी लुक-छिपकर करना, सास-ससुर का प्रतिबन्ध, कलंक-कालिमा का भय, यह सब रुक्मिणी आदि को कहाँ? भगवत्प्राप्ति के निमित्त इन दुस्त्यजों के त्याग का साहस तो व्रजदेवियों को ही करना पड़ा-
और भी- “जीवितं सखि पणीकृतं मया किं गुरोश्च सुहृदश्च मे भयम्।” अत: श्रीजीव गोस्वामी ने कहा है कि उद्धव ऐसे इनकी सुदुस्त्यजता को ही हेतु देते हैं, अत: इनके त्याग में ही महिमा है। कुलटा के आर्य धर्म त्याग में कोई महिमा नहीं। इस अपने चरित से गोपांगनाओं ने स्पष्ट ही उपदेश दिया कि पहले धर्म को दुस्त्यज बनाओ, फिर श्रीश्यामसुन्दर मनमोहन विषयिणी उत्कट उत्कण्ठा से उसे त्यागो, नहीं-नहीं, वह स्वयं ही छूट जायगा। उस प्रेम को भी गुप्त रखने का प्रयत्न करो। अत: श्रीशुक भी उनके प्रणय को सुगुप्त रखने का प्रयत्न करते हैं। वे सोचते हैं- हमसे कर्मतत्त्व, उपासना तत्त्व आदि का ही प्रतिपादन करते हुए भी कुछ प्रेम पक्षपात व्यक्त हो गया, भक्तों में वह झलका, भगवदवतारों में, श्रीकृष्ण में, वह अधिक व्यक्त हो गया, वह केवल श्रीराधा के सम्बन्ध में ही व्यक्त होने से बचा है, अतः अब हम उसे सर्वथा छिपायेंगे। परन्तु फिर भी “ज्ञानखले यथा सरस्वती” के भय से उसे ‘कदाचित्’ आदि गुप्त रीति से व्यक्त करेंगे, सुस्पष्ट नहीं करेंगे। ‘कदाचित्’ का अर्थ है- क्षण-क्षण में सौख्य वृद्धि। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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