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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
इसी प्रकार कुलीनों के लिये आर्य-धर्म दुस्त्यज होता है। व्रजांगनाओं के लिये यह आर्य धर्म दुस्त्यज था, ऐसी स्थिति में क्यों उन्हें दुर्व्यसनी कहा जा सकता है? यह तो काँटे से काँटे को निकालने की तरह पाशविक उच्छृंखल चेष्टाओं को मिटाना था, शास्त्रीय धर्म के सद्व्यसन से यह मिटाया जाता है। जिन्हें यह बात हो गयी, वे दुर्व्यसन की ओर कैसे जायँ? अब तो वे श्रीकृष्ण परमात्मा को ही भजेंगीं। प्राकृत कुलटा ही आर्य-धर्म को छोड़कर लोक के किसी हीन-दीन, मूत्र-पुरीष भाण्डागार को ही भज सकती हैं। गोपांगनाओं को तो वह घर में ही प्राप्त था, परन्तु वे तो उस अपर को छोड़कर परपुरुष, पूर्णतम पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण को भजने लगीं। स्वस्व-पतियों का सेवन उनके लिये शालिग्राम में विष्णु बुद्ध्या था, यही कारण था कि उद्धव ऐसे भक्त इनकी चरण-धूलि चाहते थे। इनकी योगीजनदुरवाप परम सद्गति हुई। क्या आर्य धर्म त्यागिनी कुलटाओं के लिये यह कदापि सम्भव हो सकता है? उनमें-इनमें महान अन्तर है। इस तरह सुदुस्त्यज आर्यपथ और स्वजन को त्यागकर गोपांगनाओं ने मुकुन्द-पदवी का सेवन किया, उन्हें महान कष्ट हुआ। वेदोक्त-शास्त्रोक्त, सद्धर्म, सत्कर्म को त्यागने में अनन्तानन्त सन्ताप सत्कुलीन को ही होगा, पर अन्त में भगवत्सम्बन्ध से वह उतना ही सुखमय भी होता है। यही इन व्रजदेवियों की विशेषता और महिमा है। श्रीजीव गोस्वामी, श्रीरूप गोस्वामी प्रभृति भावुकों ने उनके स्वकीयात्व, परकीयात्व पर यही विचार किया है कि वे यदि स्वकीया होतीं, तो आर्य-धर्म के त्याग का प्रश्न ही नहीं आता। “दुरापजनवर्त्तिनी रतिरपत्रपा भूयसी” (यह पद्य पूर्व प्रघट्टकों में सम्पूर्ण व्याख्यात है) की वहाँ भावना ही नहीं, प्रसंग ही नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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