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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
श्रीप्रभु ने का- ‘जैसे तुमकूं विश्वास हो, सोई करो।’ नागा जी ने कहा- ‘यदि हमारी श्रीस्वामिनीजू आकर कहें कि हाँ, ये निकुंज के ही श्याम हैं, तब हम मानें।’ इतने में श्रीव्रजेश्वरी वृषभानुनन्दिनी श्रीस्वामिनीजू भी पधारीं और उन्होंने नागा जी को विश्वास दिलाया कि ये ही नित्यनिकुन्ज-मन्दिरस्थ श्रीश्यामसुन्दर हैं, तब अनुमति मिलने पर बड़ी उत्सुकता से श्रीप्रभु ने चार हाथ लगाकर नागा जी की जटा सुलझायी। कहने का तात्पर्य यही कि इस प्रकार श्रीकृष्ण के तीन भेद हुए। इनमें मथुरानाथ और द्वारकानाथ के दो भेद और जोड़ देने से पाँच भेद हो जाते हैं। जैसे एक ही स्वाति बिन्दु स्थान भेद से विभिन्न नाम वाला होता है, सीप में मोती, हाथी में गज मुक्ता, गौ में गोरोचन आदि, वैसे ही श्यामसुन्दर के ये पाँच भेद हैं। रसिक भक्तों के यहाँ जितनी माधुर्य की अधिकता है, उतनी ही ऐश्वर्य की कमी। व्रजनाथ, द्वारकानाथ में यही भेद है। उत्तरोत्तर ऐश्वर्य की न्यूनता और माधुर्य की अधिकता से व्रज में पूर्ण, वृन्दावन धाम में पूर्णतर और नित्य निकुंज में पूर्णतम प्रभु माने गये हैं। अत: अन्य अवतारों के स्पर्श की अपेक्षा श्रीश्यामसुन्दर के चरण का स्पर्श व्रजांगनाओं की दृष्टि से अधिक महत्त्व रखता है। केशव का एक दूसरा अर्थ है- (प्रशस्ताः केशा यस्य सः) सुन्दर केशवाला। सचमुच श्रीश्यामसुन्दर केशव के समान किसी के भी केश नहीं हैं। गोपांगनाएँ उनके केशों पर मुग्ध हैं-
कहती हैं- “श्यामसुन्दर! हम आपके इस लोकोत्तर सुन्दर अलकावली से आवृत मुख पर विमुग्ध हैं और अक्रीत, अशुल्कदासी हैं।” उन सौन्दर्यगर्व प्रमत्त गोपांगनाओं का गुमान गोविन्द के घुँघराले केशपाश को देखकर ही चूर-चूर हो गया, वे सदा के लिये नायिकात्व, स्वाधीन भर्तृकात्व छोड़कर दासी बन जाने को प्रस्तुत हो गयीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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