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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
व्रजांगनाओं ने श्रीश्यामसुन्दर के चरण संस्पर्श को अधिक महत्त्व दिया है। कोई कहे कि स्पर्श तो सब समान ही है- जैसे श्रीवामन भगवान का या वाराह भगवान का, वैसे ही श्रीश्यामसुन्दर का, केशव भगवान का, उसमें कोई भी अन्तर कैसा? परन्तु ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह भेद तो भावुक ही समझ सकते हैं, दूसरों के लिये यह अगम्य है। इस पर व्रजदेवियों के बहुत ऊँचे भाव हैं। केशव उनकी दृष्टि में साधारण केशव नहीं, अपितु ब्रह्मा, विष्णु और महेश को वश में करने वाला केशव- (कः-ब्रह्मा, ईः-विष्णुः, शः-शिवः, तान वशयतीति केशवः) हैं। भगवदवतारों में कोई अंशावतार, कोई कलावतार और कोई आवेशावतार होते हैं। परन्तु पूर्ण, पूर्णतर और पूर्णतम अवतार पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र आनन्दकन्द यशोदानन्दन का ही हुआ है। इसमें भी भक्तों की उच्च भावना के अनुसार- “व्रजे वने निकुंजे च श्रेष्ठ्यमत्रोत्तरोत्तरम्” की व्यवस्था है। इसके अनुसार निकुंजस्थ श्रीश्यामसुन्दर मनमोहन ही पूर्णतम अथवा श्रेष्ठतम हैं। कदम्बखण्डी के नागा जी व्रज में एक अति प्रसिद्ध भावुक भक्त हो गये हैं। वे वहीं आनन्दमग्नावस्था में घूमा करते थे। एक दिन उनकी जटा एक झाड़ी में उलझ गयी। प्रयत्न किया, पर नहीं सुलझी, तब आपने निश्चय किया - ‘जिसने उलझायी है, अब वही आकर सुलझायेगा।’ वहाँ गौओं को चराने आने वाले ग्वाल बालों तथा अन्यान्य लोगों ने बहुत प्रार्थना की “बाबा, हम सुलझा दें।” पर आपने किसी की न सुनी, अटल निश्चय किया - ‘बस, अब तो वही आयेगा, तभी सुलझेगी।’ आप इसी प्रणयकोप अथवा भावावेश में बहुत समय तक उसी तरह खड़े रहे। नागा जी की प्रतिज्ञा से श्रीश्यामसुन्दर अधीर हो उठे। वे आये और नागा जी की जटा अपने कोमल करों से सुलझाने को ज्यों ही उद्यत हुए, नागा जी ने रोक दिया। कहा- ‘पहले आप अपना परिचय दीजिये, आप कौन से कृष्ण हैं- व्रज के वन के, या निकुंज के? हम तो निकुंज के उपासक हैं।’ श्रीप्रभु ने कहा- ‘बाबा, मैं वही हूँ, जाकी तुम उपासना करो हो।’ नागा जी ने कहा- ‘कैसे विश्वास हो? इसका प्रमाण कौन दें?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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