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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
यह सब भाव व्रजदेवियों के रोम-रोम में समाये हुए थे। वे किसी-न-किसी भाव से प्रतिक्षण कृष्णप्रविष्ट चेता रहती थी। “वैधी” में यह बात नहीं है, वहाँ तो संसार से चित्त हटाकर प्रभु का ध्यान करने पर भी वह (चित्त) वहाँ नहीं रहता। परन्तु रागानुगा प्रीति में मन सहज ही में प्रियतम प्राणधन के ध्यान में लीन रहता है। श्रीश्यामसुन्दर मनमोहन का यह लोकोत्तर हास, विभ्रम, गति सौन्दर्य प्रेमी को बलात् खींचे, हटाने पर भी न हटे, तभी सच्ची रागनुगा प्रीति है। लौकिक कामी-कामुक की भी यही स्थिति होती है। इसीलिये महात्मा श्रीतुलसीदास ने चाहा कि जैसे कामी को नारी प्रिय होती है, वैसे ही मुझे भगवान् श्रीअयोध्यापति प्रिय हों- इसीलिये सकलसुन्दरशेखर मयूरशेखर श्रीकृष्ण, ऐसे भाव से व्यक्त हुए कि उन्हें देखकर किसका मन न चल जाय? ऐसे ही तात्पर्य की, श्रीव्रजांगनाजन की उक्ति है-
अर्थात नाथ! मधुर पदावली के साथ उच्च स्वर से गाये गये, आपके स्वरालापों को सुनकर तथा त्रिभुवनमोहन इस दिव्य रूपराशि को निहारकर दैवी, मानवी, आसुरी त्रिलोक में कौन वह स्त्री है, जो आर्यचरित से चलित न हो जाय? जबकि पशु, पक्षी, हरिण और जड़ वृक्षों तक में रोमांच हो आता है? इस प्रकार यहाँ व्रजदिव्यदेवियों के प्रसंग में केवल भावमात्र लौकिक है। वैसे तो वे प्रभु और उनकी लीला सदा से अलौकिक है। अतः व्रजांगनाओं के आकर्षणातिशय-द्योतनार्थ भी कहा- “गत्यानुरागस्मित...।” इसमें ‘प्रमदा’ पद आया है। इसकी व्युत्पत्ति है- ‘प्रकृष्टो मदो यासान्ताः प्रमदाः।’ मद में मोहकता है। यह नारीवर्ग में स्वभाव सिद्ध है। वह भी व्रज की नारियों में, वह भी फिर अंगना ‘प्रशस्तानि अंगानि यासान्ताः’ वह भी श्रीकृष्ण में, उनकी ही लीला से आक्षिप्तचित्त प्रमदाएँ। यों प्रकर्ष की पराकाष्ठा हो गयी। इस पर भी यह और विशेषता कि इनका चित्त, देह, गेह, स्वजननेह से हटकर श्रीकृष्ण परमात्मा में आकृष्ट हो गया। और चाहिये ही क्या? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भाग., 10 स्कन्ध पूर्वार्द्ध, अध्याय 29, श्लोक 40
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