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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
गोपांगनाओं को यह सब नाच वही भगवत्लीलाशक्ति नचा रही है। अलसवलितादिस्वरूप गोपांगनाविषयक श्रृंगारोद्रेक से मन की अनवस्थिति का नाम विभ्रम है। यह श्रीकृष्णभाव है। इस प्रकार के अवलोक से गोपियाँ कृष्णात्मक चेष्टा से गृहीत हुईं। इन सबसे लाख की तरह द्रुत भाव भी हो रहा है। इसके अतिरिक्त श्रीकृष्ण की प्रत्येक चेष्टा से जो मनोरम आलाप अथवा रमण करने वाले आलाप हैं, फिर तदनुगुण विहार और विभ्रम से तदात्मक चेष्टा ग्रहण की। विभ्रम का अर्थ पहले कहा गया है। ‘मनमोहन श्यामसुन्दर सिंह गति से आकर सामने खड़े हो गये।’ ऐसी व्रजांगनाओं की भावना से उनके मानस में पूर्णानुराग का अभिव्यंजन, हास के स्वानुकूलता, विभ्रम से विशिष्ट भ्रमण, कटाक्ष, नेत्रतारकों का विशिष्ट घुमाव आदि हुआ। यह सब प्राकृतों में भी होता है, पर उससे यह लीला अधिक स्थिर महत्त्व की है। ‘मनोरमालाप’ पर विश्वनाथ चक्रवर्ती के ये भाव हैं- श्रीव्रजदेवियों के उस समय ये मनोरम आलाप हुए-अयि पद्मिनी! (कमलिनि, अर्थात् स्त्री से-नायिका से बात कर रही है, नायिकात्व का आरोप करके पूछ रही है) आप लोग स्थल पद्मिनी हैं, हम प्रेमपिपासार्त्त हैं, हम मधुपों को मधुपान कराओ। एक गोपी कहती है- ‘हे पद्मिनी! अपने पति सूर्य को मधुपान देगी? पर सूर्य को पद्मिनी मधुपान नहीं कराती।’ ऐसे मनोरमालाप से एक गोपी पराजित हो गयी। दूसरा अर्थ-दूसरी कहती है- तुम्हें महादर्प-सर्प ने दष्ट किया है, हम गारुड़िक हैं, हम तुम्हारे अंग का विघट्टन करेंगी। तब वह कहती है- हमें सर्प ने नहीं काटा। इस पर गारुड़िक बनी गोपी कहती है- तुम्हारी गद्गद वाणी से तो यह स्पष्ट हो रहा है। ऐसे मनोरमालाप से आक्षिप्तचित्ता गोपांगनाओं ने श्रीकृष्ण की गत्यादि उन-उन चेष्टाओं को ग्रहण किया। इससे मन में लौकिकता न आनी चाहिये। श्रीभगवान परम निष्काम हैं। यहाँ भक्तपारवश्यात् प्राकृतता की प्रतीति है। एक बार श्रीनन्दरानी को भाव हुआ कि ‘ये तो ईश्वर हैं।’ पर यह भाव प्राकृतलीला में व्याघात है। ऐसा होने पर श्रीयशोदा छड़ी कैसे दिखायें? अतः प्रभु ने उस भाव को हटाया। माधुर्य भाव से वह हट गया। यहाँ प्राकृत कान्तभाव से अप्राकृत ईश्वरभाव को दबाया। श्रीभगवान का वह सौन्दर्य, माधुर्य कान्तादि भाव से गोपांगनाओं की एकतानता का विशेषकर पोषक हुआ। मनोरमालाप, विहार आदि से उन्हें बन्धादि उपदेश हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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