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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
हाय! वे लोग विलखते स्त्री-पुत्रं को, जिनका पालन धर्मतः न्याय है- लीला सुनते ही तुरन्त छोड़कर समचुच जंगल में भाग गये। ऐसे बहुत से लीला श्रोतः दीन होकर, अर्थात् कन्था कौपीन के चिथड़ों को लपेटे, पक्षियों की वृत्ति धारण किये, नारायण कहते यहाँ वृन्दावन में भीख माँगते फिरते हैं। क्या सखि! तुम्हीं बताओ, ऐसों से प्रेम करें?” सारांश यह कि जब भावुक का चित्त लाक्षा की तरह द्रुत हो जायगा, सतत भावना-परिपाक से, तब उसमें ब्रजेन्द्रनन्दन श्यामसुन्दर का प्राकट्य होगा और फिर वे वहाँ से जाने में समर्थ न होंगे। यद्यपि भगवान् सर्वशक्तिमान हैं, उनकी महिमा है- “छूछी भरे, भरी ढरकावे, जब चाहे तब फेर भरावे।” परन्तु ऐसे भक्तों के आगे उनकी सर्वशक्तिमत्ता कुण्ठित हो जाती है, वे उन्हें नचा सकते हैं। इस तरह के वियोग में स्वाद है। यह अनुभव की बात है। कहीं मार्ग में प्रिय मित्र मिला, उसका चित्र हृदय पट पर अंकित हो गया। मोहर तब उभड़ती है, जब लाक्षा गरम हो। स्नेहरूप अग्नि से द्रुत अन्तःकरण पर वस्तु का स्वरूप प्रकट होगा। कामी कामिनी के लिये व्याकुल रहता है, उसे अग्नि के लिये तृण से कोई सम्बन्ध नहीं, उसके हृदय में वियोगाग्नि सदा धधकती रहती है। इस तरह दर्शन-स्पर्शन आदि द्वारा हृदयलाक्षा पिघलती है, उसमें अपने इष्टतत्त्व के सम्पृक्त होने पर वह फिर अचल हो जाता है। श्रीमद्भगवद्वपु मूत्र-पुरीष भाण्डागार प्राकृत शरीर नहीं, वह अप्राकृत दिव्य रसमय है, अत: पूर्वोक्तरीत्या “बाहुप्रसारपरिरम्भ आदि के अनुसार व्रजदेवियों के तत्तदंगालभन द्वारा मानो उसने व्रजदेवियों को अप्राकृतरसानुभवक्षम देह दी। ‘उज्ज्वल नीलमणि’ का भी यही मत है-गन्धक को पारद से घोटें, तो कुछ काल के बाद गन्धक जैसे पारद (पारा) रूप हो जाता है वैसे ही पूर्ण के सम्बन्ध से अपूर्ण वस्तु पूर्ण हो जाती है, प्राकृत वस्तु अप्राकृत बन जाती है। यही बात व्रजांगनाओं के पक्ष में है, भगवान् ने उनके अलकादि का स्पर्श करके इन्हें रसस्वरूप-स्वस्वरूप बना दिया, प्राकृत से अप्राकृत में बदल दिया। इस पर भगवान् का अधिक आनुकूल्य पाकर गोपांगनाओं को दर्प हुआ। उसी को दूर करने के लिये लीलानायक श्रीकृष्ण अन्तर्हित हो गये। छिप गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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