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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
फिर आकाशवाणी हुई- आप इस जन्म में मुझे प्राप्त नहीं कर सकते। क्योंकि वैराग्य के परिपक्व हुए बिना कुयोगियों को मैं नहीं दीखता। जो एक बार रूप दिखाया है, वह आपकी कामना (इच्छा वृद्धि) के लिये है। फिर तो जरा-सा भी आस्वाद मिल जाने से छोड़ा ही न जा सकेगा- “विहातुमिच्छेन्न रसग्रहो यतः” एक कण का भी आस्वाद हो जाने से फिर ‘चाट’ पड़ जाती है। पर जब तक कुछ भी अनुभव नहीं, किसी भी वस्तु में कैसे प्रवृत्ति हो सकती है? इसलिये पहले संयोग हो, तब विप्रयोग का आनन्द मिले। इसीलिये भगवान कृष्ण ने श्रीव्रजांगनाओं में पहले रससंचार किया।
आज भागवत की ‘रासपंचाध्यायी’ शंकाओं का केन्द्र बनी हुई है। उसका यह श्लोक प्रधान और स्पष्ट शंकास्थान माना गया है। परन्तु इसके पूर्वापर को जिन्होंने कभी सोचा नहीं, जो अत्यन्त बहिरंग हैं, उन्हें ही दोष दीख पड़ते हैं। अन्यथा थोड़ा भी विचार करने से प्रसंग शुद्ध प्रतीत होता है। हाँ, तो श्रीकृष्ण कोटि-कोटि कन्दर्प के सौन्दर्य दर्प को अपनी नखमणिचन्द्रिका के सौन्दर्य सिन्धु के एक बिन्दुकण से निर्जित करने वाले हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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